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श्रावकधर्मप्रदीप
दिग्वत के अतिचारों का निरूपण
(अनुष्टुप्) ऊर्ध्वाद्यतिक्रमा निन्द्या न कार्या दुःखदाः सदा ।
यतः स्वस्थो भवेत्स्वात्मा संसारार्णवपारगः ॥१७९।। ऊर्धेत्यादि:- दिग्वतस्य पंचातिचाराः ग्रन्थान्तरेषु निरूपिताः सन्ति। तद्यथा-ऊर्ध्वदिशायाः अतिक्रमः प्रमादात् कषायावेशात् विस्मरणाद्वा कृतमर्यादातः ऊर्ध्वमपि गमनं वायुयानादिना मर्यादातिक्रमेण भ्रमणं पर्वतादिषु उन्नतेषु कीर्तिस्तंभादिषु आरोहणं न कर्तव्यम्। कृते सति दिग्व्रतस्य प्रथमोऽतिचारः स्यात्। उक्तकारणैरेव अधोदिशायामपि कूपादिके खन्यादौ अवतरणं अधोऽतिक्रमः द्वितीयोऽतिचारः स्यात्। पूर्वादिष्वपि अखिलास्वपि दिक्षु मार्यादीकृतक्षेत्राबहिः केनापि कारणेन गमनं तिर्यग्व्यतिक्रमो नाम तृतीयोऽतिचारः स्यात् । पूर्वदिशि अनावश्यकतया क्षेत्रमर्यादातो हीनगमनं शेषक्षेत्रप्रमाणं प्रयोजनवशादुत्तरदिशि संयोज्य तत्र लोभाद् गमनं क्षेत्रवृद्धिर्नामा चतुर्थोऽतिचारः स्यात्। क्षेत्रव्रतस्य विस्मरणं तु पंचमः। इत्येवं पञ्चातिक्रमाः लोके शास्त्रे च निन्दनीयाः सन्ति परलोके च व्रतस्यैकदेशभङ्गरूपत्वात् दुःखफलोत्पादकाः सन्ति अतः तदेव कर्तव्यं यदात्मा आत्मन्येव स्थिरीभूय संसारसमुद्रस्य पारं गच्छेत् ।१७९।
दिग्वत के ग्रन्थान्तरों में पाँच अतिचार बताए हैं। ये अतिचार व्रत का एकदेश भंग कर देते हैं। व्रतभ्रष्ट मनुष्य संसार से पार नहीं हो सकता। आत्मा स्वात्मरूप से विचलित हो जाता है, इसलिए ऐसे निन्दनीय अतिचारों से सदा दूर रहना चाहिए। वे अतिचार ये हैं-प्रमाद या विस्मरण से ऊर्ध्वदेशका, उल्लंघन कर देना। अर्थात् जितनी मर्यादा पहिले की थी कि मैं ऊर्ध्व दिशा में ४० या ५० या ६० या १०० फुट ऊपर चढूँगा उस मर्यादा को लांघ जाना यथा-वायुयान से भ्रमण करते समय पर्वत के ऊपर, मीनार या कीर्तिस्तम्भादिकों के ऊपर चढ़ते समय यहमर्यादा टूट सकती है। इसी प्रकार उक्त कारणों से ही अधोदिशा का उल्लंघन करना दूसरा अतिचार है। पूर्वादि आठ तिर्यग्दिशाओं का उल्लंघन करना तिर्यग्दिशाव्यतिक्रम नामक तृतीयातिचार है। चौथाअतिचार है क्षेत्रवृद्धि। वह इस प्रकार कि पूर्वादि दिशाओं में किसी ने १००-१०० योजन की मर्यादा ले रखी है। कुछ समय बाद पूर्व में तो १० योजन का ही काम पड़ा पर उत्तर में १५० योजन जाना आवश्यक ज्ञात हुआ। तब पूर्व में ५० घटाकर उत्तर में ५० योजन जोड़कर यह समझना कि हमने व्रत भंग नहीं किया यह चतुर्थ क्षेत्रवृद्धि नामा अतिचार है। व्रत की मर्यादा का स्मरण न रखना लापरवाही करना यह विस्मरण नाम का पाँचवाँ अतिचार है। इस प्रकार ये पाँच अतिचार त्याज्य हैं । तब ही व्रत निर्दोष रह सकता है।१७९।
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