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नैष्ठिकाचार
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की सुविधा की प्रधान दृष्टि है, इसमें दाता को तो पुण्य बंध होने से परोक्ष फल है, प्रत्यक्ष में तो पात्र की सेवा ही है, वैसे अन्वयदत्ति में नहीं। इसमें पात्र के लाभ की दृष्टि गौण है, स्वयं के लाभ की दृष्टि अधिक है। स्वयं दाता का लाभ इसमें साक्षात् है परोक्ष नहीं। कारण यह है कि अपनी सम्पत्ति से अपने जीवन काल में मोह त्याग कर उत्तराधिकारी को देना अपने को संसार कीच से निवृत्त करने का उपाय है। वह श्रावक संपत्ति से तथा कुटुम्ब से भी मोह रहित हो आत्मसाधन के लिए धर्माचरण को अंगीकार करता है। अतः उसका साक्षात् लाभ है।
वह अपना धन अपने द्वारा पोषण किए जानेवाले पोष्य वर्ग, अपने द्वारा गृहस्थ श्रावक के नाते किये जानेवाले देवपूजन, गुरु-सेवा, पात्र-दान आदि धार्मिक कार्य के निमित्त उत्तराधिकारी पुत्र आदि को सौंपकर आपगृहारम्भ से निवृत्त होजाता है। यह दान स्वयं दाता के लिए अत्यन्त लाभदायक है, अतः इसकी गणना भी दान के भीतर है।
क्षुधित के लिए भोजन की तरह कामी के लिए स्त्रीदान, रतिदान व आराम और विषय-साधनों के लिए बाग-बगीचा का दान, गीतदान, नृत्यदान, नाटक-सिनेमा-दान, तेल व इत्र का दान अथवा अन्य पाप के साधनों का दान मोह, संसारवर्द्धक व पापोत्पादक होने से कुदान है। ऐसे दानों से महत्पापों का सञ्चय होता है, अतः ये अग्राह्य हैं, नरकादिबन्ध के हेतु हैं। इनके साथ दान शब्द का उपयोग करना भी पाप का हेतु है।
अतः दान या अतिथिसंविभागवत का पालन विवेक के साथ ही सम्भव है, अविवेक के साथ नहीं। श्री जिनेन्द्र की अर्चा, पूजन, अभिषेक, रथयात्रा, धर्म-प्रभावना, ज्ञानवर्धक पुस्तकों का प्रचार, धर्मोपदेश देना, जैनधर्म के प्रचार, उसकी स्थिरता, उसकी कीर्ति के बढ़ाने हेतु जो-जो कार्य किए जायँ उनमें जो द्रव्य का, समय का तथा जीवन का उपयोग करते हैं वे सब उत्तम दानी हैं। दान स्वार्थ त्याग का दूसरा नाम है। अतः न केवल धन त्यागने से मनुष्य दानी होता है। किन्तु स्वार्थ त्याग किसी भी रूप में किया जाय यदि उसका उद्देश्य पवित्र है तो वह सब उत्कृष्ट दान है।
कुछ सज्जनों की ऐसी धारणा है कि धनी पुरुष ही दान का अधिकारी है। दरिद्र के पास कुछ है ही नहीं तब दान क्या दे? इस प्रश्न के सम्बन्ध में भी विचार करना अत्यावश्यक है। जैनागम के अनुसार सर्वोत्कृष्ट दान तो मुनि के लिए दिए गए आहार
औषध आदि हैं। साधु के हेतु किए गए दान में द्रव्य के खर्च की प्रमुखता नहीं है किन्तु श्रद्धा और भक्ति भावना की मुख्यता है। देना तो मात्र आहार है और वह भी अपने
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