Book Title: Shravak Dharm Pradip
Author(s): Jaganmohanlal Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 299
________________ २६८ श्रावकधर्मप्रदीप सामायिक का समय प्रातः, मध्याह्न और सायंकाल है। तीनों कालों में कम से कम २ घड़ी, मध्यम रीति में ४ घड़ी और उत्तम रूप में ६ घड़ी सामायिक करना चाहिए। कोई कोई ऐसा कहते हैं जो सामायिक का काल मात्र २ घड़ी ही है। जो व्रत प्रतिभाधारी केवल प्रातःकाल ही सामायिक करते हैं वे २ घड़ी काल मात्र करने के कारण जघन्य सामायिक करते हैं। जो प्रातः सायं दोनों कालों में करते हैं वे मध्यम ४ घड़ी सामायिकवाले हैं। इसी प्रकार तीनों संध्याओं में दो-दो घड़ी सामायिक करना ६ घड़ी समयवाली उत्तम सामायिक है। सामायिक प्रतिमावाला उत्तम सामायिक ही स्वीकार करता है, न कि मध्यम या जघन्य। व्रत प्रतिमावाला क्रमशः जघन्य मध्यम और उत्तम सामायिक का अभ्यास करता है। उभय व्याख्यानों का निष्कर्ष इतना है कि सामायिक प्रतिमा में सामायिक शिक्षा व्रत पूर्णता को प्राप्त होता है। द्वितीय प्रतिमा में यह केवल अभ्यासात्मक है अतः अतिचारादि दोष उसे प्राप्त हो जाते हैं। सामायिक प्रतिमावान् जो एकान्त हो, जन संपर्क रहित हो, जीवजन्तु की बाधा रहित हो, अति शीत या अति उष्ण न हो ऐसे योग्य क्षेत्र में योग्य काल का विचार कर खड्गासन या पद्मासन से अथवा अर्धपद्मासन से अत्यन्त विनय भाव से पंचपरमेष्ठी की भक्ति को हृदय में धारण कर उनके आदर्श पर पहुँचने की भावना रखता हुआ मानसिक वाचनिक तथा कायिक प्रवृत्तियों की चंचलता को रोक कर उन्हें स्थिर कर स्वात्मध्यान करता है। ___सुख में, दुःख में, धनिकता और दरिद्रता में, मृत्तिका और रत्न में, शत्रु और मित्र में, इष्ट के संयोग में और उसके वियोग में, महल में और श्मशान में, निन्दा करनेवाले में और अपनी प्रशंसा करने वाले में, अपने को मारने वाले में और अपने पर शस्त्र प्रहार करनेवाले में प्रत्येक विरुद्ध स्थिति के रहते हुए भी जो अपने को समान बुद्धिवाला बना सकता है वही सच्चा सामायिकी है। ऐसी समता बुद्धि का निवासी ही विषय कषायों से अपने को बचाकर शुद्ध चिन्मय स्वात्ममन्दिर का प्रतिष्ठित देवता है। वही संवर और निर्जरा को प्राप्त कर मोक्ष का अधिकारी है। निर्ग्रन्थ दिगम्बर साधु ही इस खड्गधारावत् कठोर व्रत के सच्चे स्वामी हैं। बिना सामायिक के मुक्ति प्राप्त नहीं होती। जितने भी व्रत हैं उन सबका एकमात्र उद्देश्य समता भाव की प्राप्ति ही है। यद्यपि साधु प्रतिसमय अपने परिणाम ऐसे ही समता रूप रखते हैं तथापि उस भावना को उन्नत बनाने के लिए संध्यात्रय में सामायिक करते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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