Book Title: Shravak Dharm Pradip
Author(s): Jaganmohanlal Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 301
________________ २७० श्रावकधर्मप्रदीप करे व उनके गुणों की स्तुति करे। ऐसा करते करते व संसार की दशा का विचार करते करते बारह भावनाओं का आलंबन कर शरीर से भी ममत्व त्याग स्वात्मध्यान का अभ्यास करे। इसका नाम सामायिक है। पञ्चनमस्कार मंत्र का जप, सामायिक पाठ वाचन, अन्य कविकृत स्तुतियाँ व वन्दना के पाठ ये सब उक्त कार्य के लिये आलंबनभूत हैं। इनका आश्रयकर अपने मूलोद्देश्य की पूर्ति करे। इस तरह सामायिक प्रतिमा का स्वरूप है। यह व्रती पूर्वोक्त पाँच अतिचारों का बचाव तो करता ही है साथ ही सामायिक में और भी अनेक दोष आ जाते हैं जिनको ३२ दोषों में नियुक्त कर उनके त्याग का उपदेश दिया गया है उनसे बचने का भी प्रयत्न करना चाहिये। यही बात आचार्यं आगे प्रतिपादन करते हैं।२०२। ___ (अनुष्टुप्) द्वात्रिंशदोषाः कथिताः सामायिकविनाशकाः । त्याज्याः स्वात्मा यतः स स्याच्छुद्धचिद्रूपनायकः।।२०३।। द्वात्रिंशदित्यादिः- सामायिकस्य विनाशकाः द्वात्रिंशद्दोषाः सन्ति। तथा कृते सति न किंचिदुत्तमं फलं भवति। अनादरात्-गर्वात् कीर्तिसंपादनाभिलाषात्-परपीडामवगणय्य-कायमस्थिरीकृत्यवक्रमुखेन-संकुचितशरीरेण-ऊर्ध्वाधोभागसंचलनेन-दुष्टपरिणामसहितेन-आगमाम्नायविरुद्धन-सभयेनग्लानिसहितेन-स्वबुद्धिविद्याधनगौरवमनुभवता-ज्ञानकुलोच्चत्वमनुभवता-चौरवत् प्रच्छन्नरूपेणसामायिककालमुल्लंघ्य-भयोत्पादककर्मणा-सावधवचनोच्यारणपूर्वकं-परनिन्दया-भ्रूयुगं-चालयता-संकोचयता वा यत्र तत्रावलोकयता- स्थानप्रतिलेखनमकृत्वा-च अव्यवस्थितमनसा-यत्किंचिदपि विचारयतागुनगुनेति यत्किंचिदपि उच्चारयता-भेकवत् मध्ये मध्ये उच्चैर्वच उच्चारयता-विस्मृतितया खण्डं पाठमुच्चारयता-वा लौकिकवांछायुक्तचित्तेन-यद्वा सामायिकं न करणीयम्। तथाकरणे तस्य किंचिदपि साफल्यं न भवति। निर्दोषसामायिकेन कर्मणां आस्रवो न भवति, संवरपुरस्सरं निर्जरा भवति संवरनिर्जराभ्यामेव मुक्तिर्भवति तस्मात् भवदुःखभीतेन सादरं यथासमयं विशुद्धपरिणामेन प्रमादरहितेनैव सामायिकं प्रीतिपूर्वकं कर्तव्यं यतः स आत्मा शुद्धचिद्रूपनायकः स्यात् ।।२०३।। सामायिक में ३२ प्रकार के दोषों की संभावना शास्त्रों में बताई गई है। अनादर से, गर्वयुक्त, दूसरों से कीर्ति मिले इसलिए, दूसरों को पीड़ा उत्पन्न करते हुए, अपने शरीर को स्थिर न रखकर, अंग चलाचल करते हुए, तिरछे मुख से अथवा संकुचित शरीर से, ऊँचानीचा शरीर करते हुए, दुष्परिणामों से, आम्नायविरुद्ध, भयसहित, ग्लानिसहित, या अपने बड़प्पन का अनुभव करते हुए, अपनी उच्चजाति कुल का गौरव समझते हुए और चोर की तरह छिपते हुए, सामायिक के काल का उल्लंघन कर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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