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नैष्ठिकाचार
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सामायिक करना उचित नहीं है। इसी तरह दुर्वचन, पापवचनोच्चारण पूर्वक, परनिन्दावचन उच्चारण पूर्वक, भौंह चढ़ाकर या संकुचितकर, स्थान की शुद्धि न करते हुए भी चारों दिशाओं में दृष्टि फेरता हुआ सामायिक न करे।
अव्यवस्थित चित्त से अथवा जो समय पर मन में आवे उसका विचार करता हुआ, चाहे जो कुछ बोलता हुआ, गूंगे की तरह गुनगुनाता हुआ, मेढक की तरह बीच में जोर जोर से चिल्लाता हुआ, विस्मृति के कारण अशुद्ध तथा खंडित पाठ पढ़ता हुआ लौकिक लाभ की इच्छा से जो सामायिक करता है उसकी सामायिक सदोष होती है। उक्त ३२ दोषों को तथा इसी प्रकार के अन्य दोषों को जैसे सामायिक में अंगड़ाई लेना, हाथ-पैर पसारना, अंगुली चटकाना, नख तोड़ना, ताली बजाना, चुटकी बजाना, लवंगादिचबाना, शारीरिक श्रृंगार व वस्त्रों की सम्हाल पर बार-बार ध्यान देना, असूया से किसी का बुरा चिन्तन करना, किसी को अनिष्ट कार्य करते देख चिन्तित होना, क्रोध करना और सामायिक के बाद अमुक कार्य करूँगा ऐसी चिन्ता करना इत्यादि अनेकानेक दोष सामायिक में प्राप्त होते हैं, उनसे बचना चाहिए।
सामायिक सब प्रकार से अपने को संकोचकर आत्मध्यान में अपने को लगाने का कठिनतर कार्य है। अनादि कालीन राग-द्वेष के संस्कार बिना कारण भी प्रति समय सामने आते रहते हैं। व्यवहार में यदि कोई यात्रा की तैयारी कर रहा है तब उसमें व्यस्त होने से अन्य इन्द्रियों के विषयों को उक्त समय भूल जाता है। इसी प्रकार जब नाटक देखता है तब कर्ण और नेत्र के विषयों के सिवाय स्पर्शन रसन और घ्राण के विषयों की ओर चित्तवृत्ति नहीं जाती। पर सामायिक के समय चित्त के घोड़े को दौड़ने के लिए खुला मैदान है अतः साधारण समय की अपेक्षा वह न जाने कहाँ-कहाँ की दौड़ लगाता है। इसलिए अत्यन्त सावधानी के साथ अपने मन, वचन और काय को स्थिर करके अपना उपयोग ध्यान में लगाना चाहिए। सामायिक संवर और निर्जरा का कारण है। निर्जरा और संवर ही मुक्ति प्राप्ति के हेतु हैं, अतः संसार के दुःख से जो भयभीत हैं उन्हें आदरसहित, निराकुलता से, विशुद्ध परिणाम बढ़ाते हुए प्रमाद रहित होकर तथा अत्यन्त सावधानी से सामायिक करना चाहिए।
सामायिक प्रतिमावान के लिए सामायिक का कार्य मुख्य है। सामायिक के समय उसकी स्थिति महाव्रती की है। उतने काल तक आचार्यों ने उसे उपचार से महाव्रती ही कहा है। शिक्षाव्रत के नाते ही यह मुनिव्रत की शिक्षा देनेवाला व्रत है। इसलिए इसमें
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