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नैष्ठिकाचार
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नहीं होते तो भी एक महान् दोष है। ऐसे धर्म संकट में प्राण अटक जाने पर कुछ सज्जन साधु के आहार न देने के पाप से भयभीत हो सचित्ताहार पर्व में करने लगे और कुछ ने आगम विरुद्धाचरण के भय से ऐसा नहीं किया। भले ही वे उस साधु को आहार नहीं दे सके। उन्होंने आहार दान का संवरण कर लिया पर आगम विरुद्ध मान्यता को स्थान नहीं दिया। विद्वज्जन और साधुगण उक्त विवेचन पर विचार करें और जो आर्षमार्ग के अनुकूल हो उसे ही स्वीकार करें।
(३) यदि दाता स्वाधिकृत द्रव्य को दूसरे को सौंपकर आप कार्यान्तर के लिए चला जाय तो यह परव्यपदेश नामक दान का तृतीय अतिचार है। अथवा परकीय द्रव्य को दान में देवे तो यह भी परव्यपदेश है। वर्तमान काल में श्रावकजन फल आदि वस्तु या रुपया दूसरे श्रावकों को दे देते हैं। इस अभिप्राय से कि वे वह वस्तु या उस धन से द्रव्य खरीद कर मुनियों को आहार दान में दे दें। यह पद्धति सदोष है। दाता यदि ऐसे द्रव्य का दान देता है तो वह परव्यपदेश है।
अनेक सज्जन दाता श्रावक को जो द्रव्य प्रदान करते हैं वे इस संकल्प से देते हैं कि यह द्रव्य हम आपको मुनिदान के लिए देते हैं और गृहीत श्रावक ऐसे द्रव्य को ले लेता है। यदि उस वस्तु का जो फल या दूध आदि के रूप में हो और यदि उस दिन साधु उक्त द्रव्यों को आहार में ग्रहण न करे तब ऐसी दशा में उस वस्तु का उपयोग कौन करे? यह भी विचारणीय है। क्या दाता इस तरह संकल्पित द्रव्य को अपने उपयोग में लाने का अधिकारी है, कदापि नहीं। ऐसा करने से वह अनधिकार परद्रव्य का उपभोग करने के कारण अपने व्रत में दोष लगायेगा क्योंकि इस पद्धति में उसका उपभोग व्रती श्रावक को भी हो जाता है, अतः न तो ऐसे संकल्प से द्रव्य देना चाहिए और न लेना चाहिए। यह निर्माल्य की तरह है। ___ गृहस्थ यदि देना ही चाहे तो श्रावक को ही संकल्प करके दे दे। गृहीता श्रावक उस द्रव्य का स्वामी बन जाने पर उस द्रव्य को दान में भी दे सकता है और स्वयं भी उसका उपयोग कर सकता है। ऐसी स्थिति में फिर किसी भी प्रकार के दोष की संभावना इस सम्बन्ध में नहीं रहती। वस्तु देनेवाला श्रावक अपने मन में भी यदि संकल्प रखेगा कि यह हम मुनिदान हेतु दूसरे श्रावक को दे रहे हैं तब यदि वह मुनिदान में नहीं लग सकी तो उसे दुःख होगा। इसलिए इस सम्बन्ध में मनःसंकल्प भी उचित नहीं है।
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