Book Title: Shravak Dharm Pradip
Author(s): Jaganmohanlal Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 278
________________ नैष्ठिकाचार २४७ स्यात् । अन्यथा संसारपरिभ्रमणमूलबीजभूतकर्मणामास्रवणात् तत्फलानुभवनरूपदोषयुक्तत्वात् सरोगावस्थायामिव स्यादस्वस्थः।१९९।। भोगोपभोग परिमाण व्रत के पाँच अतिचार बतलाए गए हैं (१) सचित्ताहार, (२) सचित्तसंबंधाहार (३) सचित्तसंमिश्राहार, (४) अभिषव और (५) दुष्पक्वाहार। इन पाँचों से उक्त व्रत दूषित होता है। (१) सचित्ताहार-सचित्त का अर्थ है सजीव अर्थात् जीव सहित पदार्थ। जिन पदार्थों के सेवन करने में उस पदार्थ में स्थित जीव को बाधा उत्पन्न होती है उसका सेवन सचित्ताहार है। ऐसे पदार्थ भोजनादि भोगरूप और वस्त्रादि उपभोगरूप होते हैं। यद्यपि त्रस जीव सहित पदार्थों के आहार का त्याग तो व्रती के इसके पूर्व अष्टमूलगुणों में ही हो गया है अतः उसके ऐसे पदार्थों के ग्रहण की संभावना ही नहीं की जा सकती किन्तु वनस्पत्यादि एकेन्द्रिय सहित होने से जो सचित्त कहलाता है उसके ग्रहण की संभावना ही की जा सकती है। ऐसी स्थिति में सहज ही यह प्रश्न उपस्थित होता है कि जब एकेन्द्रिय वनस्पत्यादि सचित्ताहार का त्याग पञ्चम प्रतिमा से होता है तब द्वितीय प्रतिमा के भोगोपभोग प्रमाणव्रत वाले के सचित्ताहार दोषाधायक क्यों है? यदि यहाँ ही दोषाधायक होने से उसका त्याग हो जाता है तब पाँचवी प्रतिमा किसलिए है? वहाँ क्या त्याग करता है? यह एक प्रश्न है। इसका समाधान कोई इस प्रकार करते हैं कि यद्यपि यह व्रती त्रसहिंसा का त्यागी है और स्थूल तो क्या सूक्ष्म भी त्रसादि की संभावना जहाँ की जा सकती है उसका भी दूर से परिहार करता है। तथापि ऐसे पदार्थ जिनकी मर्यादा शास्त्रों में नियमित समयतक बताई है। जैसे छने जल की एक अन्तर्मुहूर्त की और आटा अथवा पिसे हुए दूसरे अन्नादि पदार्थों की ग्रीष्म, वर्षा ओर शीत ऋतु में क्रम से ५, ३ और ७ दिन की है। परन्तु इन पदार्थों की मर्यादा समाप्त होने पर प्रमाद या भूल से यदि वे सेवन में आ जायँ तो वह भी सचित्ताहार है। इसी प्रकार सचित्तत्याग प्रतिमावाले को स्नानादि कार्यों में प्रमाद से कच्चे जल का, या वृक्षों की सचित्त छाल का उपयोग करने में आ जाय तो सचित्ताहार का दोष प्राप्त होगा। चूँकि भोगोपभोग परिणाम व्रत द्वितीय प्रतिमा से ही प्रारम्भ हो जाता है तथा एकादश प्रतिमा तक रहता है, जिसके मध्य में सचित्तत्याग नामक पाँचवी प्रतिमा है अतः प्रतिमा में ये अतिचार जिस प्रकार से संभावनीय हैं उसी प्रकार ग्रहण करना चाहिए। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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