________________
नैष्ठिकाचार
२५१
स्वामी समन्तभद्रजी ने भोगोपभोगत्यागवत की व्याख्या में (१)त्रसहिंसा सहित (२) अनेक स्थावर (निगोद) की हिंसा सहित, (३) नशा या प्रमाद बढ़ानेवाले, (४) रोगोत्पादक और (५) लोक विरुद्ध ऐसे पाँच प्रकार के पदार्थों का त्याग करना आवश्यक बताया है। इन पदार्थों का त्याग यावज्जीवन है। अन्य भोग्य या उपभोग्य पदार्थों में से यथासंभव नियत समय के लिए विषयवैतृष्ण्य के अभिप्राय से भी त्याग करना आवश्यक है। इस व्याख्या के अनुसार व्रती सचित्त (एकेन्द्रिय बनस्पत्यादि) द्रव्य का यद्यपि द्वितीय तृतीय चतुर्थ प्रतिमा में त्यागी नहीं है तथापि तृष्णा घटाने के अभ्यास के लिए उसका नियमित काल के लिए त्याग करता है। यही कारण है कि अष्टमी, चतुर्दशी, दशलक्षण पर्व और अष्टाह्निका आदि के पुण्य दिवसों में हरी (सचित्त वनस्पति) के त्याग की प्रथा जैन समाज में पाई जाती है।
कोई-कोई सज्जन यह तर्क करते हैं कि व्रत के दिन केवल हरी का त्याग कर दिया पर भोजन बनाने में भी तो आरंभ होता है और कच्चा पानी पीने में भी सचित्त भोजन होता है तब यह कैसा त्याग है? यह तर्क ठीक होता यदि तर्क करने वाले सज्जन उक्त तर्क के आधार पर हरी के साथ-साथ जल का तथा अन्य आरंभ का भी त्याग कर देते। उनके लिए उनका तर्क लाभदायक होता और संभवतः दूसरों के लिए भी आदर्श हो जाता, पर ऐसा देखा नहीं जाता। तर्ककर्ता वे होते हैं जो स्वयं कोई त्याग नहीं करते
और अंशमात्र भी त्याग करने वालों की उच्चता हमसे ज्यादा न मानी जाय इस अभिप्राय के अहंकार के कारण उक्त प्रकार का तर्क उपस्थित कर या तो उन्हें व्रत से छुड़ाकर अपनी श्रेणी में लाना चाहते हैं या समाज के सामने उस अंशमात्र त्यागी को मूर्ख सिद्ध कर देना चाहते हैं। इस रीति से जो तर्क अपने भी गिरने का साधन हो और अन्य को भी गिराने वाला हो वह कुतर्क है। उसका फल वह है जो धर्म और धर्मात्मा की अविनय का होता है, अथवा किसी प्रतिज्ञाबद्ध को प्रतिज्ञाभ्रष्ट करने के प्रयत्न का होता है।
यदि यह तर्क केवल प्रश्न के रूप में जानकारी प्राप्त करने के लिए ही वास्तव में किया जाय तो दोषास्पद नहीं है। इस तर्क का यह समाधान है कि गृहस्थ देशव्रती है। यह क्रमशः पूर्ण व्रत की ओर जा रहा है। जितना त्याग जहाँ कर सकता है करता है। अभ्यास करते-करते वह पूर्ण व्रती बनेगा।गृही का व्रत महाव्रत की प्राप्ति के लिये अभ्यास रूप व्रत है। अभ्यासकर्ता को उत्साहित करना चाहिये न कि कुतर्क द्वारा उसे गिराना चाहिये। सचित्तमात्र का या एकरसमात्र का या एकबार भोजनमात्र का त्याग करना
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org