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नैष्ठिकाचार
चार
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सप्ताह में एकबार अष्टमी और चतुर्दशी के पुण्य पर्व में भी वह उस साम्यावस्था को रात्रि-दिन समीपस्थ करने का प्रयत्न करता है। इसी क्रिया का नाम प्रोषधोपवास व्रत है। ____ इस व्रत के पालन करने के लिए उसे सर्वप्रथम यह विचार करना पड़ता है कि मुझे आज जबतक उक्त व्रत का समय है किसी भी प्रकार का कषाय भाव चाहे वह क्रोध हो, मान हो, मायाचारी हो, लोभ हो, अथवा हास्य, रति, अरति, शोक, भय, गुगुप्सा हो अथवा स्त्री-पुरुष या अनुभय रूप विकृत परिणाम हों उसने अपने को सर्वथा बचाना है। इनमें से कोई भी कषाय या नोकषाय मुझपर अपना प्रभाव न ला सके, इसके लिए वह अपने को संवृत रखता है।
कषायों पर विजय प्राप्त करने के लिए ही वह पञ्चेन्द्रिय के विषयों को उस दिन अङ्गीकार नहीं करता। ब्रह्मचर्यपूर्वक अपना समय व्यतीत करता है। नाना रसों के स्वादरूप रसनेन्द्रिय के विषयों से बचने के लिए या तो आहार मात्र का त्याग करता है अथवा नीरस आहार ग्रहण करता है। घ्राणेन्द्रिय के विषय त्याग के लिए सुगन्धित पुष्प, तेल, इतर अथवा चंदन, केशर आदि पदार्थों का उपयोग नहीं करता। चक्षुरिन्द्रिय के विषय को जीतने के लिए देशाटन करने, नाटक, सिनेमा या अन्य दृश्यों को देखने से अपने को दूर रखता है। मधुर संगीत, वाद्य आदि कर्णेन्द्रिय के विषयों से अपने को बचाता है। अपनी सम्पूर्ण इन्द्रियों को इस प्रकार वश में रखता है जैसे कछुआ किसी भी विपत्ति की आशंका से अपने हाथ, पैर, मुख आदि सम्पूर्ण अवयवों को एकत्रित कर संकुचित कर छिपा लेता है और अपने पृष्ठ बलपर आनेवाले सम्पूर्ण आघातों को सह लेता है पर अपने अन्य किसी भी अंग पर चोट नहीं आने देता।
उक्त उद्देश्य को पूरा करने के लिए शारीरिक उन्मत्तता पर विजय प्राप्त करने के लिए, इन्द्रियों का मान मर्दन करने के लिए, विषयों को जीतने के लिए, मन को वश में रखने के लिए और पापारम्भ की सम्पूर्ण क्रियाओं से अपने को बचाने के लिए वह उसदिन जबतक व्रत का समय है आहार का भी त्याग करता है।
इस तरह कषाय, विषय और आहार का त्याग कर निद्रापर विजय प्राप्त कर अपने समय का धर्मध्यान द्वारा सदुपयोग करने वाला व्रती प्रोषधोपवासी कहलाता है। प्रोषधोपवास के उक्त चिह्न हैं या स्वरूप हैं। यह निःसंदेह सुगति का कारण है।
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