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श्रावकधर्मप्रदीप
की अन्यथा प्रवृत्ति हो जाना स्वाभाविक है तथा मानसिक असावधानी से सामायिक में चित्त न लगना उसकी समस्त क्रियाओं के प्रति अनादर भाव का होना ही सम्भव है। जिस कार्य में अनादर भाव है उसके कार्य भूल जायँ, यह भी सुसंगत है। इस प्रकार एक अतिचार अन्य अतिचारों का जनक है और ये व्रत से भ्रष्ट होने का द्वार खोल देते हैं। ____ संसार भ्रान्ति के दाता अतिचारों से या इसी प्रकार के अन्य संभावनीय दोषों से जो अपने को मुक्त कर सके, उसी आत्मा में स्वात्मस्थित होने की सामर्थ्य है। यही सच्चा स्वास्थ्य है, यही आत्मा के लिए निरोगावस्था है। इस दुखद अवस्था को प्राप्त करना ही सामायिक व्रत का ध्येय है। अतः अतिचारों से अपने को मुक्त करना चाहिए ताकि हम स्वस्थ और सुखी बन सकें। १९४।
प्रश्न:-प्रोषधोपवासस्यास्ति किं चिह्न मे गुरो वद। हे गुरुदेव! प्रोषधोपवास व्रत का स्वरूप मुझे बताइए
(इन्द्रवज्रा, उपजातिश्च) सर्वेन्द्रियाणां सुखदं हि धर्म्यध्यानं यथावद् गृहिणां च न स्यात् । तत्पर्ववारेषु चतुर्विधञ्चाहारं कषायं विषयं विचार्य ।।१९५।। त्यक्त्वोपवासः क्रियते स्वधर्मे सदा स्थितैः यैस्सुगतिश्च तेषाम् । श्रेष्ठोपवासोभवतीह लोके पूर्वोक्तवाक्ये न च सङ्कनीयम्।।१९६।।युग्मम्।।
सर्वेत्यादि:- गृहस्थावस्थायां सर्वसुखस्थानं धर्म्यध्यानं सदा न भवति। अतः तत्प्राप्त्यर्थं अष्टम्यां चतुर्दश्यां च सदा विषयभोगान् क्रोधादींश्च परित्यज्य चतुर्विधञ्चाहारं शरीरमददायकं मत्वा विहाय स्वधर्मे निवासः उपवासः कथ्यते। ये व्रतिनः पूर्वोक्तप्रकारेण उपवासं स्वीकुर्वन्ति तेषां सदा सुगतिः स्यात् । दुर्गतिश्च न स्यात् । इत्यास्मिन् उपदेशे शङ्का न कर्तव्या, धर्म्यध्यानेन दुष्कृत्यानामभावात् । यतो दुष्कर्मणामप्यभावो भवत्यतो निष्पापिनस्ते सुगतिमेव यान्ति। क्रमशः पंचमगतिं मोक्षमपि प्राप्नुवन्ति। इति सम्यग् विचार्य निःशंकतया प्रोषधोपवासव्रतमङ्गीकरणीयम् ।१९५।१९६।
गृही गृह की अनेक झंझटों के कारण सम्पूर्ण सुख का निधान जो आत्मध्यान या धर्म्यध्यान है उसे सदा नहीं कर सकता है, अतः जिस प्रकार प्रातः, सायं या मध्याह्न काल में कुछ नियमित समय के लिए वह सर्व पापारम्भ का त्याग कर अपनी साम्यावस्था को अपने समीपस्थ करने के प्रयत्न स्वरूप सामायिक को स्वीकार करता है। उसी प्रकार
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