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श्रावकधर्मप्रदीप
जबतक मैं उक्त दोषों से रहित नहीं हूँ तबतक शुद्ध कैसा? यह तो मात्र विडम्बना होगी, अतः आत्मग्लानि उसे उत्पन्न होती है। वह सतत विचारता है कि इन दोषों से मैं कैसे छूटूं। जबतक इनसे नहीं छूटा तबतक शुद्धि कैसी? इस प्रतिक्रमण से उत्पन्न उलझन को प्रत्याख्यान सुलझा देता है।
वह भविष्य में मैं किसी प्रकार से ऐसे अपराध न करूँगा, अपने में यह कालिमा न लगने दूंगा ऐसा दृढ़ निश्चय करता है। इसी का नाम है दोषों का त्यागरूप प्रत्याख्यान। ___ प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान में, कायोत्सर्गरूप ध्यान में तथा जिन वन्दना जिनस्तुति आदि कार्यों में व्रती अपने विकृत परिणामों का त्याग करता है। सावध कार्यों के निमित्त से जो दोष उत्पन्न हो गए हैं उनका निराकरण करता है। स्व-परभेद विचार द्वारा परित्याग कर स्वग्रहण का प्रयत्न करता है। उस विशुद्ध रूप का ही स्मरण, उसी का जप, उसी की वन्दना और उसी की स्तुति करता है। इस प्रकार स्वात्मोपलब्धि का प्रयत्न सब ओर से करना ही सामायिक व्रत है। समता उद्देश्य है और ये पाँच उसी के साधक हैं। अथवा समता, वन्दना, स्तुति, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग ऐसे छह आवश्यक भी सामायिक के अंग माने गए हैं। पाँच और छह का वर्णन केवल वर्णन की शैलीमात्र है वास्तव में दोनों एक ही हैं।
उक्त प्रकार से अपने को राग-द्वेष से विमुक्त कर साम्यावस्था की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करने का जो नियम है वही सामायिक व्रत है। यह व्रत प्रातःकाल, मध्याह्नकाल
और सायंकाल में कम से कम २ घड़ी (४८ मिनिट) मध्यम प्रमाण से ४ घड़ी और उत्तम प्रमाण से ६ घड़ी का प्रतिदिन करना चाहिए। १८९।१९०।१९१। १९२।१९३।
तदतिचाराः अब सामायिक व्रत के अतिचार लिखते हैं
(अनुष्टुप्) मनोदुष्प्रणिधानाद्या अतिचारा भवप्रदाः । न कार्या भ्रान्तिदा भव्यैः स्वस्थः स्वात्मा भवेद्यतः ।।१९४।।
मन इत्यादिः- वाक्कायमानसानां सामायिकक्रियातिरिक्तविषयेषु क्रियाकरणं सामायिकस्य त्रयोऽतिचाराः सन्ति। योगत्रयस्यैव माहात्म्यं यत् जीवः कर्मणा बद्ध्यते योगचाञ्चल्याभावे तु न
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