Book Title: Shravak Dharm Pradip
Author(s): Jaganmohanlal Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 271
________________ श्रावकधर्मप्रदीप प्रोषधोपवास में प्रोषध और उपवास दो शब्द मिश्रित हैं। इसका अर्थ है कि प्रोषध अर्थात् पर्व के दिन करना। उपवास शब्द का अर्थ है उप-समीपे वसतीति उपवासः अर्थात् सर्वारम्भ को छोड़कर जो अपने समीप आ जाये अर्थात् अपनी आत्मा का अवलम्बन करके रहे। सारांश यह कि आहार, व्यापार, परिग्रह, पंचेन्द्रियविषय, भोगविलास तथा कषाय भावों के वश न होकर आत्मा की सच्ची साम्यावस्था स्वाधीनावस्था को प्राप्त करने का प्रयत्न ही उपवास है। २४० प्रोषध का अर्थ सकृद्भुक्ति अर्थात् एक बार भोजन करना है ऐसा भी कई ग्रन्थकारों ने लिखा है। इस व्रत के उत्तम मध्यम और जघन्य ऐसे तीन भेद भी किए गए हैं। उत्तम प्रोषधोपवास वह है- जो अष्टमी, चतुर्दशी के पूर्वदिन में एकाशन पूर्वक प्रारम्भ होता है तथा पर्व के दूसरे दिन एकाशन के बाद समाप्त होता है। अर्थात् अष्टमी का प्रोषधोपवास सप्तमी और नवमी को एकाशन और अष्टमी को उपवास (निराहार) करने से होता है। इसी प्रकार त्रयोदशी और पूर्णिमा या अमावस्या को एकाशन पूर्वक चतुर्दशी को उपवास (निराहार) करना चतुर्दशी का प्रोषधोपवास कहलायगा। धारणा के दिन से पारणा के दिन तक यह १६ प्रहर का उपवास होता है। मध्यम प्रोषधोपवास की रीति यह है कि केवल अष्टमी को या चतुर्दशी को उपवास करना। यह व्रत सप्तमी या त्रयोदशी के संध्याकाल से प्रारम्भ हो जाता है और नवमी या पूर्णिमा अथवा अमावस्या के प्रभातकाल समाप्त होता है। अतः यह १२ प्रहर का उपवास मध्यम व्रत कहलाता है। पारणा के दिन दो प्रहर के बाद भोजन ग्रहण करने के कारण यह १४ प्रहर का भी कहलाता है। जघन्य प्रोषधोपवास व्रत वह कहलाता है कि जो व्यक्ति १६ या १२ प्रहर तक निराहार नहीं रह सकता। उसे आहार के बिना आकुलता हो जाती है, अतः वह पर्व के दिन रसरहित, स्वादरहित सादा भोजन अल्पमात्रा में ग्रहण कर अगले दिन उसी समय तक निराहार रहता है अतः उसके ८ प्रहर पर्यन्त आहार का त्याग रहने से वह जघन्य व्रत कहलाता है। ये तीनों ही व्रती आहार न करने मात्र से अपने को कृतकृत्य नहीं मान सकते। अर्थात् आहार छोड़ देने मात्र से वे उक्त प्रोषधोपवास व्रत के व्रती हो गए ऐसा नहीं है किन्तु अपने नियमित समय में सम्पूर्ण पाप और आरंभ का तथा विषय और कषायों का त्याग कर व्रत का समय महाव्रती के विशुद्ध परिणामों जैसा व्यतीत करे। धर्मध्यान पूर्वक समय-यापन करे। स्वाध्याय धर्मचर्चा धर्मगोष्ठी करे तो वह व्रत है अन्यथा नहीं। For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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