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नैष्ठिकाचार
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कहीं-कहीं उत्तम और मध्यम प्रोषधोपवास का उक्त रूप स्वीकार करते हुए भी जघन्य प्रोषधोपवास के स्वरूप में अन्तर माना है। वे ऐसा लिखते हैं कि पर्व के दिन और रात्रि के ४ प्रहर ऐसे आठ प्रहर निराहार रहना उपवास करना जघन्य व्रत है। पर यह व्रत इस रीति पर भी १२ प्रहर का होगा। कारण कि पर्व की पूर्व रात्रि में वह आहार त्याग न करे केवल अष्टमी या चतुर्दशी के प्रभात से ही आहार का त्याग करे यह व्रती के लिए संभव नहीं है। रात्रि भोजन का त्याग तो उसे मूलगुणों में ही हो चुका है। व्रत प्रतिमा में वह रात्रि भोजन का त्यागी न हो यह बात संभव नहीं। ऐसी स्थिति में उक्त रीति का आठ प्रहर का उपवास संभव नहीं मालूम होता। यह अधिक सुसंगत है कि दो भोजन दिन के कहे गए हैं। वह अष्टमी या चतुर्दशी का एक भोजन कर दूसरा भोजन त्याग कर देता है और अष्टमी चतुर्दशी के दोपहर से नवमी के दोपहर तक ८ प्रहर (२४घण्टे) निराहार रहता है। इस प्रकार वह जघन्य व्रती होता है। किसी भी प्रकार का व्रती हो उसे व्रत मात्र में विशुद्ध परिणाम और धर्मध्यान करना चाहिए तभी उसका व्रत व्रतसंज्ञा को प्राप्त होगा अन्यथा नहीं। १९५।१९६।
तदतिचाराः अब प्रोषधोपवास व्रत के अतिचार बतलाते हैं
(उपजातिः) सन्मार्जनेनैव विना पृथिव्यां विलोकनेनैव विना पदार्थाः। ग्राह्या न तेषां त्यजनं न कार्यं यतो भवेत्कौ स्वपरात्मरक्षा ।।१९७।।
सन्मार्जनेनैवेत्यादिः- विषयेच्छाकषायोद्रेकाभ्यां विरहितो व्रती यानि कार्याणि करोति तेषु सर्वेष्वपि पूर्वमेव विचिन्तयति यत्मत्कार्यनिमित्तेन केषामपि जीवानां बाधा न स्यात् । यदि व्रती इत्येवंप्रकारेण विचारविरहितः अनवेक्षिते अशोधिते वा भूम्यादिके गच्छति जीवरक्षामविचार्य वस्तूनि गृह्णाति स्थापयति च मलमूत्रादिकमप्येवमेव यत्र कुत्रापि निक्षिपति स्वयमपि अशोधिते संस्तरे. स्वपिति तिष्ठति अनादरभावेन अनैकाग्रयेणं सालसेन परिणामेन प्रमादपरणत्या वा कर्तव्याकर्तव्ये विस्मारयन कार्याणि करोति तदा तस्य व्रतं सदोषं (सातिचारम) एव भवति। एवं करणेन न स्यात् पररक्षा न च स्वात्मरक्षा। परहिंसया स्वस्यैव हिंसा भवति, कर्मबन्थहेतुत्वात् । व्रतादीनां पालनं तु संवरार्थमेव क्रियते। तत्र दोषोत्पादने न भवति संवरः। अतो न स्यात् स्वात्मनो रक्षा। तस्मात्सदा प्रयत्नतो व्रतं पालनीयम्।।१९७।।
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