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नैष्ठिकाचार
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पञ्चाणुव्रतों के स्वरूप निर्देश करने के बाद आचार्य दिग्वतादि तीन गुणव्रतों का स्वरूप लिखते हैं। इन गुणव्रतों से पञ्चाणुव्रतों की रक्षा होती है और उनमें गुणवृद्धि होती है।
___ दशों दिशाओं में प्रसिद्ध-प्रसिद्ध स्थानों को निश्चित करके उन स्थानों के आश्रय से कि मैं इस दिशा में इस पर्वत पर्यन्त ही अपने व्यापारादि गार्हस्थिक प्रयोजनों से आना-जाना, कार्य करना-कराना, अन्य किसी को प्रेरणा करना आदि करूँगा, इस क्षेत्र के बाहर मैं न जाऊँगा।
इस व्रत का तात्पर्य स्पष्ट है। व्रती का ध्येय यह है कि यद्यपि मेरे अणुव्रत है। अर्थात् एकदेश पाप मेरे जीवन में विद्यमान है उसका त्याग मेरे संभव नहीं है तथापि यदि कुछ निश्चित क्षेत्र में ही मैं अपना निर्वाह कर सकता हूँ तो अपनी आजीविका आदि के लिए सारे संसार में क्यों दौड़ा-दौड़ा फिरूँ। सर्व क्षेत्र को पापमय क्यों बनाऊँ। यदि मैं अपने कार्यक्षेत्र की सीमा बांध लेता हूँ तो उस क्षेत्र के बाहर मेरे सब पापों का पूर्ण त्याग बन जाता है। इस ध्येय को सामने रखकर व्रती दिग्वत को ग्रहण करता है।
वह अपने जीवन भर उन-उन सीमाओं का उल्लंघन व्यापार, लोभ, सुरक्षा और भोगोपभोग आदि किन्हीं कारणों के उपस्थित होने पर भी नहीं करता। अपनी सीमा के भीतर ही भीतर व्यापार करता है। यदि विपत्ति आ जाय तो उसके भीतर ही अपनी रक्षा का उपाय करता है और यदि संभव न हो तो समाधिमरण स्वीकार कर लेता है, मर्यादा को लांघता नहीं। मर्यादा के बाहर यदि कोई लाभ का सौदा मिलता है तो न लायगा, न मँगायगा। यदि कोई अपना यहाँ शत्रु हो या मित्र हो तो बैर या स्नेह के वश भी वहाँ न जायगा। यदि कर्जदार कर्ज लेकर भाग जाय तो वह सन्तोष रखेगा पर सीमा का उल्लंघन न करेगा। यदि सीमा बाहर उत्तमोत्तम भोगोपभोग की प्रचुर सामग्री सहज ही उपलब्ध होती हो तो वह इच्छा निरोध करेगा, सीमा बाहर न जायगा।
इस तरह इस व्रत के पालन से गृहस्थ को निर्लोभ वृत्ति आती है। रागद्वेष हीन होता है। धन की स्पृहा कम होकर व्रत के प्रति श्रद्धा बढ़ती है। भोगोपभोग में तृष्णा घटती है। संकल्प विकल्प घटते हैं। अतः दुःखों से बचने के लिए अपने शारीरिक पाप कार्यों की क्षेत्र मर्यादा हो जाने से वह पाप और उसके फल से कुछ अंशों में बच जाता है। इस व्रत का परिपालन सुखदायी है, अहिंसादि व्रतों का पोषक है, अतः अणुव्रती को यह व्रत पालना गुणकर है।१७८।
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