________________
२०६
श्रावकधर्मप्रदीप
अहिंसाणुव्रत, सत्याणुव्रत, अचौर्याणुव्रत, परस्त्रीसेवात्याग और परिग्रह परिमाण ये पाँच व्रत अणुव्रत हैं। तथा दशों दिशाओं में गमनागमन परिमाणरूप दिग्व्रत, तथा उसी के भीतर अल्पकाल के लिए निश्चित देश का ग्रहण रूप देशविरति और स्वीकृत विषयों में अनावश्यक विषयों के त्याग रूप अनर्थ दण्डविरति ये तीन गुणव्रत हैं। प्रातः मध्याह्न
और सायंकाल त्रिकाल में समता के अभ्यासरूप सामायिक, पर्व के दिनों में प्रोषधोपवास, स्वीकृत परिग्रह में से अनावश्यक भोग और उपभोगों का त्यागरूप भोगोपभोग परिमाणव्रत तथा धर्मात्माओं की सेवारूप वैयावृत्यव्रत ये चार शिक्षा व्रत हैं। ये सब मिलाकर श्रावकों के १२ व्रत हैं- इनका विस्तार से वर्णन आगे ग्रंथकार करेंगे, उन्हें दत्तचित्त होकर सुनो।१।२।३।४।
प्रश्न:-अहिंसाव्रतचिलं किं केऽतिचारा गुरो वद। हे गुरो! अहिंसा व्रत का क्या स्वरूप है और उसके दोष कौन हैं? कहिए
(अनुष्टुप्) जीवस्थानं गुणस्थानं मार्गणास्थानकं तथा । योन्यादि निश्चयाद् बुद्ध्वा त्रसजीवादिरक्षणम् ।।१६५।। कार्यं नित्यं यथाशक्ति स्थावराणामपि तथा । अहिंसाणुव्रतं पूतं यतः स्याच्छांतिसौख्यदम् ।।१६६।।युग्मम्।।
जीवस्थानमित्यादिः- चतुर्दशसुजीवस्थानेषुचतुर्दशसु गुणस्थानेषु चतुर्दशसु मार्गणास्थानेषु च क्व-क्व जीवानामवस्थानम्भवति। क्वोत्पद्यन्ते त्रसजीवाः इत्येवंप्रकारेण जीवानां निवासस्थानं उत्पत्तिस्थानञ्च ज्ञात्वा त्रसजीवानां सर्वप्रकारेण रक्षणं यथायोग्यं स्थावरजीवानामपि रक्षणं कार्यम् । एतदेव गृहस्थानां शान्तिदं सौख्यदं पवित्रं अहिंसाव्रतं भवति।१६५।१६६।।
मिथ्यादर्शन, सासादन, मिश्र, अविरतसम्यक्त्व, देशविरति, प्रमत्तविरति, अप्रमत्तविरति, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसांपराय, उपशांतकषाय, क्षीणमोह, सयोगी और अयोगी ये चौदह गुणस्थान हैं। मोह और योग के तथा उसके क्रमशः क्षीण होने से ये गुणस्थान बनते हैं। इन विभिन्न परिणाम वाले जीव गुणस्थानों में पाए जानेवाले जीव हैं।
बादर एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, संज्ञी व असंज्ञी पंचेन्द्रिय, इन सात के पर्याप्त और इनके ही अपर्याप्त के भेद से चौदह प्रकार के जीवसमासों में भी जीव व्यवस्थित हैं। चारों गति, पाँचों इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय,
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org