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श्रावकधर्मप्रदीप
जो वचन स्वपर हितकारक हों, सुनने में प्रिय मालूम हों, थोड़े शब्दों में कहे गए हों इस प्रकार इन तीन विशेषणों से सहित होते हुए जो यथार्थ वस्तु के परिचायक हों वे सत्य या प्रशस्त वचन हैं ऐसा जैनाचार्यों का अभिमत है। जो वचन मिथ्या हों, स्वपरहितकारक न होकर हानिकारक हों, भ्रमोत्पादक हों, संशय उत्पन्न करनेवाले हों, कषायोत्पादक हों, मिथ्यामार्ग के पोषक और प्रेरक हों, सदाचार के विरोधक हों, धर्म मार्ग के विपरीत हों, किसी के प्राणहर्त्ता हों, समाज में संक्लेश और क्षोभ को उत्पन्न करनेवाले हों, लोक, समजा व देश के हितनाशक हों वे सब वचन तथा वचन प्रतिपादक चेष्टाएँ “असत्य” हैं। सत्याणुव्रती ऐसे वचनों को राग, द्वेष, ईर्षा, लोभ, क्रोध व अभिमान आदि के वशीभूत होकर कभी नहीं बोलता । वह ऐसे वचनों को ही सत्य मानकर उनका प्रयोग करता है जो सुननेवाले के तथा बोलनेवाले के प्राणहर्त्ता न हों, अकल्याण कर्ता न हों, अधर्म व असदाचार में लेजानेवाले न हों, सुनने में कर्ण को प्रिय लगें, हृदय को प्रिय लगें, जगत् में किसी के लिए भी अशान्तिदायक न हों और सम्यग्ज्ञान उत्पादक हों।
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उक्त गुणों से रहित किन्तु ऊपर कहे हुए असत्य के दोषों से सहित वचन यदि स्थिति को स्पष्ट करनेवाले भी हों तो भी वे संक्लेश, सन्ताप, हिंसा तथा पाप के उत्पादक होने के कारण 'असत्य वचन' हैं। उनका प्रयोग सत्याणुव्रती के लिए वर्जित हैं। १६८।१६९।।
अथ तदतिचारा:
अब सत्याणुव्रत के अतिचारों का निरूपण करते हैं ।
(उपजाति:) मिथ्योपदेशो न रहस्यभेदो न कूटलेखो न च मन्त्रभेदः । न्यासापहारश्च तथा न कार्यो व्रतस्य शुद्धिर्यदि वाञ्छनीया ।।१७० ।।
मिथ्योपदेश इत्यादिः - मिथ्योपदेशः जिनवचनविरुद्धशास्त्रोपदेशः । रहस्यभेदः स्त्रीपुरुषाभ्यां अन्येन केनापि रहसि विहितस्याचारस्य प्रकाशनम् । कूटलेखः कपटभावेन द्व्यर्थप्रतिपादनपरं लेखनिर्माणम् । न्यासापहारः स्मृतिभ्रंशात् स्वकीयं न्यासमंशतो याचतः । पुंसोऽपूर्णन्यासनिवर्तनम् । मन्त्रभेदः इङ्गितेनाकारेण द्वाभ्यां वा परस्य मनोभावं बुध्वा दुरभिप्रायेण सर्वेषां पुंसां पुरस्तात् प्रकाशनम्। एवं सत्यार्णैव्रतस्य पञ्चातिचाराः परिवर्जनीया यदि व्रतस्य शुद्धिः वांछनीया वर्तते । १७० ।
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