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नैष्ठिकाचार
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स्त्री परिग्रह से सन्तान वृद्धि होती है। उस सन्तान की अभिवृद्धि और परिपोषण के हेतु अति परिग्रह का सञ्चय होता है। परिग्रह सञ्चय के दुष्कर्म में ही पारस्परिक संघर्ष का अवसर आता है जिससे हिंसापाप का जन्म होता है। परिग्रह के लिए ही असत्यवादिता का अवलम्बन करता है। उसके लिए ही नीति अनीति का विवेक त्याग येन केन प्रकारेण पर धन का भी अवलम्बन कर चोरी का पाप करता है। इस प्रकार पाँचों पापों की जननी कामवासना है। यदि कामवासना शान्त हो जाय तो समस्त पापारम्भ समाप्त हो जाँय। पर वासना शान्त कैसे हो यह एक टेढ़ा प्रश्न है।
आचार्यों ने संसारी प्राणियों की इस कमजोरी को दूर करने का मार्ग भी प्रदर्शित किया है। वह मार्ग है स्वदारसन्तोषव्रत। जो विवेकी इसे स्वीकार कर लेते हैं वे न केवल काम-वासना को तिलाञ्जलि देते हैं, बल्कि पांचों इन्द्रियों के विषयों की वासनाओं पर भी नियन्त्रण रखते हैं। उनको कोई भी वासना अनैतिक मार्ग पर नहीं ले जा सकती। इस व्रत से मनुष्य, मनुष्य बनता है। उसकी आसुरी वृत्तियाँ समाप्त हो जाती हैं। अनेक घोर दुष्कर्म जो परस्त्रीसेवियों से होते हैं उनसे वह बच जाता है।
परस्त्री और परपुरुषसेवी अनीति व अनाचार के जन्मदाता हैं। उनके उस महत्पाप का फल न केवल उन्हें बल्कि संम्बन्धित अनेकानेक प्राणियों को भोगना पड़ता है। गर्भस्राव, भ्रूणहत्यायें, बालहत्याएँ और अनाथ सन्तान की वृद्धि, इस अनैतिक वासना से ही होते हैं। मर्यादा रहित ये अविवेकी स्त्री-पुरुष कामवासना के शिकार सदा बने रहते हैं। ये अपनी माता, भगिनी व कन्या अथवा पिता, भाई और पुत्र को भी पवित्र दृष्टि से नहीं देख सकते। इनको देखकर भी उनको काम का विकार उत्पन्न हो जाता है। इतना ही नहीं, वे दुर्वासना के कारण उनसे भी अनुचित सम्बन्ध करते हुए पाये जाते हैं। इस प्रकार पशु के समान अविवेकी नर-नारियों का न तो कोई भाई हो सकता है और न कोई भगिनी, न कोई माता हो सकती है और न कोई पुत्र। ये सब सम्बन्ध केवल स्वदार और स्वपतिसंतोष वाले पुरुष और स्त्रियों में ही संभावित होते हैं। इस प्रकार असदाचारी संसार के सम्पूर्ण सम्बन्धों को समाप्त कर अपने संसार को केवल वासनामय बना लेता है। वासनामय संसार का फल यदि कोई हो सकता है तो वह नरक निगोद ही हो सकता है। यदि इन्हें ही वह प्राप्त न हो तो और कौन से पाप इनसे बढ़कर हो सकते हैं जिनका प्रतिफल नरकादि हों।
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