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नैष्ठिकाचार
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तीसरा दोष यह है कि यदि हमें यह ज्ञात हो जाय कि यह द्रव्य अमुक व्यक्ति चोरी से लाया है और हम उसकी कमजोरी को जानकर उसका अनुचित लाभ उठाना चाहें। उसे डराकर धमकी देकर उसी माल को कम मूल्यपर उससे ले लें तो यह चोरी के द्रव्य की वांछा नामक तीसरा अतिचार होगा।
राज्य द्वारा बनाए हुए व्यापारों के नियमों को भङ्ग करना, राजकीय कर का छिपा कर न देना तथा बिक्री कर, नगर निगम कर और आयकर से मुक्ति पाने के लिए हिसाब गलत बनाना, छल करना तथा राज्य के युद्धरत होने पर, पर चक्र के द्वारा आक्रमण होने पर अथवा परचक्र के आक्रमण की आशंका होने पर यदि शासक शासन के कार्य में आन्तरिक व्यवस्था में ढीले पड़ जायँ तो उस संधि का दुरुपयोग करना, मनमाने भाव से सौदा बेचना और सामग्री का अतिसंग्रह कर उसे रोककर रख लेना, यह सब अपराध नृपनीति भङ्ग नामक अचौर्य व्रत का चतुर्थ दोष है। ___ पाँचवें प्रकार का दोष यह है कि बहुमूल्य वस्तु में अल्प मूल्य की नकली चीजें मिलाकर बहुमूल्य के भाव में बेचना यह “प्रतिरूपक व्यवहार" नामक अतिचार है। इस प्रकार ये पाँचों अतिचार शान्ति के घातक हैं।
स्वोपार्जित न्यायवृत्ति से प्राप्त द्रव्य द्वारा अपना व स्वायत्त जनों का भरण-पोषण करना, अन्याय व अनीति से दूर रहना यह अचौर्य व्रत का तात्पर्य हैं। जब तक उक्त उद्देश्य को सामने रखकर कार्य किया जायगा तक तक कोई दोष व्रती को प्राप्त नहीं होता।
संसार में कषायोदय की विचित्रता है, अतः व्रती भी कभी-कभी अपनी व्रत भावना को भूल जाता है और चौर्य से दूर रहकर भी लोभावेश में कुछ ऐसे कार्य करने लगता है जिनमें साक्षात् चोरी तो नहीं होती पर प्रकारान्तर से उन कार्यों से परधनापहरण हो जाता है। दूसरे को मजबूर करना, उसके सामने कठिनतर स्थिति उत्पन्न कर देना, उसे ऐसी परिस्थिति में डाल देना कि जिससे बिना पैसा ठगाए उसका जीवन निर्वाह कठिन हो जाय तो यह सब कार्य अचौर्य व्रत के लिए लांछन स्वरूप है। परधनापहरण की वांछा के बिना ये कार्य नहीं होते। इस कारण ये अचौर्य व्रत के दूषण माने गए हैं। यद्यपि इन कार्यों में कपट-व्यवहार की प्रबलता है और कपट का पाप और भी अधिक है। तथापि यह कपट उसने इसलिए स्वीकार किया है कि मेरा व्रत बना रहे। यदि सीधे तरीके से परधनापहरण होता है तो चोरी का पाप होगा, अतः वह छल से अपने को
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