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नैष्ठिकाचार
न्यासापहार - अर्थात् किसी की धरोहर के कुछ अंश को भूल से पचा लेने के अभिप्राय को रखते हुए सफाई के सवचन कहना । जैसे कोई व्यक्ति आप के पास २००) रुपया अमानत रखकर चला गया। दो साल बाद वापस आने पर वह विस्मृत हो गया कि हमने इनके पास दो सौ रखे थे। उसने आकर कहा कि भाई हमारी अमानत आपके पास १००) रखी है, दे दो । उत्तर में रखने वाला सत्यव्रती यह बोला कि जो आपका रखा हो, अवश्य ले लें। उसका यह उत्तर यद्यपि सद्वचन रूप है परन्तु अन्तरंग में वह जानता है कि मेरे पास २०० ) हैं । यह भूल से १००) माँगता है सो यदि भूल जाय तो १००) का लाभ ही रहेगा। पर हम तो मिथ्या नहीं बोलते। हमने तो उसे सत्य ही कहा कि जो आपका हो ले लें। यदि वह २००) माँगता तो हम २०० ) अवश्य दे देते। उसने अपनी गलती से कम माँगा तो हमपर कोई दोष नहीं। ऐसी गलत समझ से उसे चारी का तो दूषण लगेगा ही पर वचन बोलने की अपेक्षा यह न्यासापहार कारक वचन सुनने में सद्वचन होते हुए भी सत्य का दोष है।
इस प्रकार दुरभिप्रायपोषक सत्यवचन भी सत्याणुव्रती के व्रत की शुद्धि नहीं रखते । उसे सदभिप्राय रखते हुए ऐसे वचनों का प्रयोग करना चाहिए जिससे न व्रत अपवित्र हो और न आत्मशुद्धि का घात हो । । १.७० ।।
प्रश्नः - अचौर्याणुव्रतं किं स्यादतिचाराश्च तस्य के ?
हे गुरो! अचौर्याणुव्रत तथा उसके अतिचार क्या हैं, कृपया कहें
(वसन्ततिलका)
ग्रामे पुरे वनपथे पतितं न दत्तम्
कौ स्थापितं परधनं यदि विस्मृतं वा ।
तत्त्याग एव सुखदं व्रतमुत्तमं स्यात्
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श्राद्धस्य धर्मरसिकस्य किलैकदेशम् ।। १७१ ।।
ग्राम इत्यादिः– ग्रामे-नगरे वने-पथि निवासस्थले नदीतीरे - कौ पृथिव्यां - अन्यत्रापि वा क्वचित् परेण विसृष्टं विस्मृतं निक्षिप्तं स्थापितं धनादिकं कदापि न ग्राह्यम् । तच्चौर्यमेव महत्पापम् । तत्त्यागकरणमेव सुखदायकं स्यादचौर्यव्रतम् । धर्मपरिपालकस्य श्रावकस्य अचौर्यव्रतस्यैकदेशं तत् स्यात्किलाचौर्याणुव्रतम् ।।१७१।।
किसी भी स्थान विशेष में चाहे गाँव में हो अथवा नगर में या वन में, मार्ग में, धर्मशाला में, रेल में, मोटर में, नदीतीर में या अन्यत्रापि कहीं पर दूसरे के द्वारा भूले
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