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अथ पञ्चमोऽध्यायः
प्रश्नः - द्वितीयप्रतिमाचिह्नं किमस्ति मे गुरो वद ।
हे गुरुदेव ! दार्शनिक श्रावक का स्वरूप ज्ञात किया। अब दूसरी प्रतिमा का स्वरूप कृपाकर कहिए
(अनुष्टुप्)
पञ्चाणुव्रतपूर्त्यर्थं त्रीणि गुणव्रतानि वा ।
चतुः शिक्षाव्रतान्येवं गृहीत्वा स्वात्मचिन्तनम् ॥। १६३।। कुर्वन्ति ये यथाशक्ति दयाधर्मप्रभावनाम् । द्वितीयप्रतिमायास्ते भवन्ति स्वामिनः सदा ।। १६४ । । युग्मम् ।।
पञ्चेत्यादिः - तृतीयाध्याये पञ्चपापानां स्वरूपं प्रतिपादितम् । तदेकदेशपरित्यागिनः खलु श्रावकाः भवन्ति। श्रावकस्य देशव्रतान्येवाणुव्रतानि । तद्गुणवृद्ध्यर्थं खलु दिग्विरतिदेशविरत्यनर्थदण्डत्यागरूपाणि गुणव्रतानि सन्ति । अणुव्रतानां महाव्रतत्वापादनाय अभ्यासरूपाणि किल चतुः शिक्षाव्रतानि धियन्ते । इत्यनेन प्रकारेण द्वादश संख्याप्रमाणं गृहिव्रतं गृहीत्वा ये स्वात्मचिन्तनं कुर्वन्ति स्वशक्त्यनुसारं अहिंसामहाधर्मस्यैव प्रभावनां कुर्वन्ति । त एव गृहिणः द्वितीयप्रतिमायाः स्वामिनो भवन्ति इति संक्षेपतः द्वितीयप्रतिमायाः स्वरूपमस्ति । १ ६ ३ । १६४ ।
तीसरे अध्याय में पाँच पापों का स्वरूप निरूपण किया है। उन पापों का त्याग ही यथार्थ में व्रत है। यद्यपि पाँचों पापों का सम्पूर्ण त्याग गृहस्थ के नहीं होता, तथापि एकदेश रूप त्याग गृहस्थ अवश्य कर सकता है। श्रावक के इस एकदेश पाप परित्याग रूप व्रतों को ही अणुव्रत कहते हैं। इन अणुव्रतों से दोष न लगें और गुणों की वृद्धि हो इसके लिए तीन गुणव्रत अर्थात् दिग्विरति, देशविरति और अनर्थदण्डत्याग इनका पालन किया जाता है। इसी प्रकार से अणुव्रतों को महाव्रत बनाने के लिए उसके अभ्यासस्वरूप ही सामायिक, प्रोषधोपवास, भोगोपभोग परिमाण और अतिथिसंविभाग ऐसे ४ व्रत शिक्षाव्रत के नाम से गृहस्थ के लिए बताए गए हैं। जो इन सम्पूर्ण व्रतों का निर्दोष निरतिचार पालन करते हैं तथा जो इस प्रकार पर पदार्थों के सम्पर्क से दूर रहकर स्वात्मचिंतवन की ओर सम्मुख होते हैं वे ही द्वितीय प्रतिमा के धारक हैं।
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