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नैष्ठिकाचार
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पर ही जगत् में संघर्ष का अभाव होकर सुख और शान्ति की वृद्धि हो सकेगी।
सारांश यह है कि प्रजाजनों में इतना ही नहीं विश्व के प्राणियों में सुखशान्ति की समृद्धि एकमात्र वीतराग धर्म से ही हो सकती है, अतः उसका कार्यरूप में पालन व प्रचार सबको करना चाहिये, जिससे घर-घर में आत्मचर्चा सुनाई देवे। यही सच्चा स्वार्थ है। यह स्वार्थ ग्राह्य है। धनादि के रूप में जो स्वार्थ है वह दुःस्वार्थ है। वह संघर्ष का कारण है। अशान्ति का मूल है। उसका त्याग ही सम्यक् स्वार्थ है, जो कि विश्व का कल्याणकारक है। उससे ही लोक का हित हो सकता है, अतः सदा उसका पालन व प्रचार करना श्रेयस्कर है।१६०।१६१।१६२। इस प्रकार आचार्यश्रीकुन्थुसागरविरचित श्रावकधर्मप्रदीप वपण्डित जगन्मोहनलाल
सिद्धान्तशास्त्री कृत प्रभानामक व्याख्या में
चतुर्थ अध्याय समाप्त हुआ।
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