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श्रावकधर्मप्रदीप
की कसौटी पर कस लेवे और हितकर सिद्ध होने पर उसे आचरण में लावे। अविवेकी मनुष्य ठगाया जाता है वह हित मार्ग के स्थान में रूढ़ि या परम्परा को ही धर्म मानकर कभी-कभी अधर्म या अहित के मार्ग को ही हितकर मान बैठता है। अतः विवेकपूर्ण क्रिया ही श्रेयस्कर है।१५७।१५८।
प्रश्न:-कीदृक् तर्हि गुरो ग्राह्यो धर्मो मे सिद्धये वद।
हे गुरुदेव! मुझे अपने कल्याण की सिद्धि के लिए कैसा धर्म ग्रहण करना चाहिए, कृपाकर बताइए
(अनुष्टुप्) को वीतराग एवास्ति सद्धर्मो विश्वरक्षकः । सोऽपि तत्रैव विज्ञेयो यत्रेाद्या न दुःखदाः ।।१५९।।
कावित्यादि:- यत्र दुःखदा ईर्ष्यायाः क्रोधादय आत्मविकाराः न स्युः स एव धर्मः। स एव विश्वरक्षकः ईर्ष्याद्या एव परस्परं संघर्षमुत्पादयन्ति। संघर्षत एव अशान्तिर्भवति। अशान्तिस्तु विश्वनाशिका। तस्मात् कारणात् विश्वकल्याणार्थं तु अशान्तेर्मूलकारणानां पारस्परिकस्वार्थसंघर्षाणां तदुत्पादकानामीादीनामात्मविकाराणां परिहारः कर्तव्यः। स एव वीतरागधर्मः। तेनैव धर्मेण जगति सुखस्य शान्तेश्च समृद्धिर्भवति। अतः स एव धर्मः ग्राह्यः।१५९।
धर्म शब्द का अर्थ अपना कर्तव्य है। जब कि यह परीक्षित, स्वानुभूत तथा सुनिश्चित है। संसार का प्रत्येक प्राणी सुख और शान्ति को पसन्द करता है, वह दुःखमय तथा अशान्तिमय जीवन नहीं चाहता, तब यह भी सुनिश्चित है कि जिस मार्ग से उसे सुख और शान्ति प्राप्त हो वही उसका कर्तव्य है और वही कर्तव्य उसका धर्म है।
संसारी प्रत्येक आत्मा में कुछ गुण भी हैं और कुछ दोष भी। गुण आत्मा का स्वभाव है, और दोष आत्मा के गुणों का विकार है। आत्मा जितना अपने स्वभाव रूप को प्राप्त करेगा उतना ही अपने धर्म के निकट आयगा और जितना विभाव रूप परिणत होगा उतना ही आत्मधर्म से दूर होगा। ईर्ष्या, क्रोध, मोह, लोभ, मद, मत्सर, आदि आत्मा के विकारी भाव हैं। इनके होनेपर आत्मा अपनी स्वतंत्र सत्ता की पर से भिन्नता का भान नहीं करता। उसकी दृष्टि परपदार्थ पर रहती है। उसकी प्राप्ति में लाभ और अप्राप्ति में अलाभ मानता है। ये परपदार्थ संघर्ष के कारण हो जाते हैं। इनकी प्राप्ति के लिए
अनेक मिथ्यात्वी मोही प्राणी सदा लालायित रहते हैं और उसके लिए लड़ाई झगड़ा, ईर्ष्या, द्वेष, मोह, मत्सर आदि किन्हीं भी दुर्गुणों से नहीं डरते।
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