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॥ श्रीः ॥
द्वितीयोऽध्यायः
प्रश्नः - जघन्यनैष्ठिकस्यैव किं चिह्नं विद्यते वद?
यहाँ नैष्ठिक श्रावक का स्वरूप प्रतिपादित किया जाता है। उसके जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट ये तीन भेद हैं, इसलिए सबसे प्रथम जघन्य नैष्ठिक श्रावक के क्या लक्षण हैं ऐसा शिष्य प्रश्न करता है। इसका उत्तर श्री आचार्य इस प्रकार देते हैं
(वसन्ततिलका)
पूर्वोक्तपाक्षिकजनान् प्रविहाय शेषा:
सर्वेऽपि नैष्ठिकजनाः कथिताः क्रमेण ।
तेषां हि वच्मि सकलं सुखदं स्वरूपं
तद्बोधशून्यजनतादिहिताय भक्त्या ।। १६ ।।
पूर्वोक्तेत्यादि:- सदाचारपरायणेषु श्रावकेषु पाक्षिको नैष्ठिकः साधकश्चेति भेदत्रयेण भिन्नेषु आद्यानां पाक्षिकाणां स्वरूपं तच्चिह्नानि च प्रथमाध्याये निरूपितानि । तान् पूर्वोक्तपाक्षिकजनान् प्रविहाय शेषास्तु पाक्षिकातिरिक्ताः साधकावस्थामप्राप्ताः श्रावकः क्रमेण नैष्ठिकाः कथिताः । तेषां स्वरूपं साङ्गोपाङ्गं क्रमशः कथयन्ति श्रीआचार्यपादाः । भक्त्या परिपूर्ण श्रद्धया; तान् प्रति ये नैष्ठिकश्रावकस्वरूपमजानानाः सन्ति । एतत्प्रतिपादनं श्रोतृभ्य उभयलोके सुखकरं भविष्यतीत्यप्याचार्येण प्रतिपादितमिति।।१ ६।।
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सदाचार का आराधन करनेवाले श्रावकों के पाक्षिक नैष्ठिक और साधक ये तीन भेद किए गए हैं। उनमें पाक्षिकों का स्वरूप प्रथमाध्याय में कहा है। तद्रूप आचारण करनेवाले पाक्षिकों के सिवाय तथा जिन्होंने अभी साधक अवस्था प्राप्त नहीं की ऐसे सम्पूर्ण श्रावक नैष्ठिक हैं। उनका सरल, सुबोध और सम्पूर्ण स्वरूप श्रीआचार्य उन मनुष्यों के हित के लिए, जो इस विषय से अपरिचित हैं, क्रमशः वर्णन करेंगे।
भावार्थ - श्रावक उस गृहस्थ को कहते हैं जो सद्गुरु के उपदेश को स्वहितबुद्धि से श्रद्धापूर्वक सुनता है और तदनुकूल आचरण करता है। ऐसे श्रावक तीन श्रेणियों
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