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श्रावकधर्मप्रदीप
जुआ खेलना जैसे विशिष्ट राग-द्वेष, लोभ और मोह का उत्पादक होने से श्रेयोमार्ग का विघातक है उसी उसी प्रकार वे सब कार्य जो द्यूत क्रीड़ा के समय ही विशिष्ट राग-द्वेष को उत्पन्न करते हों वे सब द्यूतक्रीड़ा जैसे ही हैं और उनका सेवन व्रती पुरुष के लिए अतिचार है।
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पशुओं का लड़ाना, दौड़ाना व परस्पर संघर्ष करा देना ये सब राक्षसी प्रकृति के आनन्ददायक कार्य दोषोत्पादक हैं। ये लोग पशुओं की पराजय से अपनी पराजय और उनकी विजय में अपनी विजय मानकर उनमें मारणान्तिक संघर्ष उत्पन्न करा देते हैं। यह सब महान् दोषाधायक है।
होड़ लगाकर जीत हार की शर्त रखकर जो भी खेल खेले जाते हैं, जिनका अभिप्राय अर्थात् उद्देश्य केवल अपने दुरभिप्राय और दुरिच्छाओं की पूर्ति है, परपराजय, परनिन्दा, परावनति तथा स्वविजय, स्वप्रशंसा और स्वाहंकार ही जिनका प्रतिफल है वे सब कार्य जैसे ताश खेलना, चौपर, संतरंज, घुड़दौड़ आदि द्यूत के समान ही दोषाधायक होने से अतिचार हैं।
पर स्वास्थ्य रक्षा, ज्ञानवृद्धि और सदाचार की उन्नति के उद्देश्य से किए जानेवाले और उक्त उद्देश्य की पूर्ति करनेवाले होड़ के कार्य दोषाधायक नहीं हैं। उससे मनुष्य की उन्नति होती है विद्या बढ़ती है, स्वास्थ्य अनुकूल होता है । सदाचार की वृद्धि होती है। जैसे-सदाचारी छात्र को पारितोषिक देने की शर्त लगाकर घोषणा करना, अमुक ग्रंथ में अच्छे नम्बरों में पास होने पर अमुक पारितोषिक प्राप्त होगा आदि की घोषणा करना तथा अनुत्तीर्ण होने पर शारीरिक व आर्थिक दण्ड की घोषणा करना इत्यादि ये सब कार्य ग्राह्य हैं; क्योंकि ये बालकों को द्यूतादि से दूर कर ज्ञानार्जन और स्वास्थ्य तथा सदाचार वर्द्धन की प्रेरणा करते हैं।
किसी भी कार्य का गुणदोष उसके उद्देश्यपूर्ति के ऊपर ही लिया जाता है। एक ही कार्य दोषोत्पादक होने से हेय और गुणोंत्पादक होने से उपादेय हो जाता है। मुनिपर उपसर्ग करनेवाले सिंह और सिंह से मुनि की रक्षा करने की इच्छा रखनेवाले शूकर में जब संघर्ष हुआ तब दोनों एक दूसरे पर प्रहार करते थे, मारते काटते थे, यहाँ तक कि अन्त में दोनों मृत्यु को प्राप्त हो गए। एक दूसरे को मारने के दोनों दोषी हुए फिर भी शूकर स्वर्ग गया और सिंह नरक गया। दोनों के कषायें थीं पर दोनों के उद्देश्य भिन्न थे, इसलिए एक ही कार्य करने पर दोनों के परिणामों में महान् भेद था, अतएव उनके फल
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