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चतुर्थोऽध्यायः प्रश्नः-प्रातरुत्थाय किं कार्यं वद मे शान्तये गुरो।
हे गुरुदेव! दार्शनिक श्रावक के आचार का वर्णन किया किन्तु उसके योग्य दिनचर्या कैसी होनी चाहिए, कृपाकर शान्ति की प्राप्ति के लिए कहिए
(अनुष्टुप्) नमोऽस्तु वीतरागाय भक्त्यैवमुच्चरन् वचः। उत्तिष्ठतु सदा प्रातदेहः स्यादशुचिर्यदि ॥११८।। मौनेनैवोच्चरन्मन्त्रं ध्यायतु स्वात्मनः पदम् । आधिाधिर्यतो भीतिः स्वयं नश्येत् समूलतः।।११९।।युग्मम्।।
नम इत्यादिः- प्रातः प्रथमं तावत् निद्रायाः परिसमाप्तौ भक्त्या "श्रीवीतरागाय नमः श्रीजिनाय नमः णमो अहिरन्ताणं” एवं नमस्कारात्मकं परमाराध्यपरमपूज्यपरमेष्ठिपरमात्मनः स्मरणात्मकं वचः वाक्यमुच्चरनेव सदोत्तिष्ठेत्। यदि कदाचित् संभोगादिकारणेन रोगादिना वा देहोऽशुचिर्भवेत् तर्हि मौनेनैव मन्त्रोच्चारणं कार्यम्। देहस्याशुचित्वभावनां च भावयित्वा स्वात्मनः शुद्धस्वरूपं ध्यायतु। यतः एवं कृते सति तस्य आधिः व्याधिः भीतिश्च मूलतः स्वयं नश्येत् ।११८/ ११९।
सर्वप्रथम जब प्रातःकाल निद्रा पूर्ण हो जाय तब "श्रीवीतरागाय नमः या श्रीजिनाय नमः" अथवा ‘णमो अरिहन्ताणं” इत्यादि नमस्कारात्मक वाक्य जो कि परम आराध्य मंगलदायक और सर्वअनिष्ट निवारक परमात्मा के मंगलमयस्मरण स्वरूप हैं उनका उच्चारण करते हुए ही शय्या का परित्याग करे।
__ यदि कभी ऐसा प्रसंग आवे जो उठते ही यह अनुभव में आवे कि मेरी देह तो अशुद्ध है। रोगादि के कारण मैं पवित्रता से नहीं रह पाता हूँ या स्त्रीससंभोगादि गार्हस्थिक कार्यों के कारण वह अशुद्ध है अथवा छोटे-छोटे बाल बच्चों के मलमूत्रादि के संपर्क से देह वस्त्रादि अशुद्ध हैं तो शब्दों द्वारा मंत्रपाठ का उच्चारण न करे, क्योंकि अशुद्धावस्था में मंत्रपाठ करना, स्वाध्याय करना, सामायिक करना, देव वन्दना करना और दान देना आदि पुण्य कार्य करना निषिद्ध है। पवित्रता के साथ ही उक्त कार्यों को निष्पन्न करना
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