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श्रावकधर्मप्रदीप करनेवाला है। ज्ञान का विनय, ज्ञानवान् का विनय, माता-पिता का विनय, गुरुजनों का विनय, वयोवृद्ध का विनय, चारित्रधारी का विनय, ये सब विनय उसके हृदय में सदा विद्यमान रहते हैं। तुच्छ से तुच्छ और हीन तथा दरिद्र का भी कभी निरादर नहीं करता। वचन में, व्यवहार में, हृदय में सर्वत्र नम्रता रखना उसका गुण है। निरहंकारता उसके जीवन में सदा रहती है और इसीलिए अनेक गुणवानों की सङ्गति से उसके उस नम्रहृदय में सद्गुणों के अङ्कुर जल्दी उत्पन्न हो जाते हैं।
आर्जव अर्थात् सरलता, विश्वस्त व्यवहार करना तथा किसी के साथ कपट का या विश्वासघात का व्यवहार न करना उत्तम आर्जव है। परमप्रिय, हितकारी व मिथ्यात्व से रहित वचनवाले का सत्यवचन नाम धर्म है। लोभादि कषायों के परित्याग से होनेवाली हृदय की पवित्रताशौचधर्म है। अनेक लोग तीर्थ स्नान को शौच कहते हैं पर यह धारणा मिथ्या है। आत्मा में पवित्रता आती है हृदय की शुद्धि से और हृदय की शुद्धि होती है उदारता से, संतोष से, परोपकार की भावना से, अतः केवल तीर्थस्थानमात्र पवित्रता का हेतु नहीं है। अपनी मानसिक पवित्रता की रक्षा के लिए सब जीवों पर दयाभाव रखकर अपनी इन्द्रियों को वश करना उत्तम संयम है। अपने उक्त गुणों पर अटल रहनेवाले गृहस्थ पर अनेक विपत्तियाँ आती हैं, अनेक कष्ट सहना पड़ते हैं व धर्मरक्षार्थ उन सब कष्टों को सहना ही गृहस्थ का उत्तम तप है। पुण्यचरित्र पुरुषों की सेवा व परोपकार के लिए स्वार्थ का व भोगोपभोगों का त्याग ही उसका उत्तम त्याग है। स्वपर पदार्थ में आत्मबुद्धि और अनात्मबुद्धि होना तथा स्वातिरिक्त स्त्री, पुत्र, कलत्र, धन, धरा, आराम व भवनादि को पर पदार्थ समझना यह जानना कि इनमें कोई भी मेरा नहीं है यह आकिञ्चन्य धर्म है। आत्मस्वरूप में लीन रहना व उसे ही ग्राह्य मानना उत्तम ब्रह्मचर्य है। ये दश धर्म आत्मा के कल्याणकारक उत्तम धर्म हैं। इन सबका यथायोग्य पालन गृहस्थ सम्यग्दृष्टि श्रावक करता है।
वह अनित्यादि द्वादश भावनाओं को भी भाता है। ये भावनाएँ कल्पित भावनाएँ नहीं है, किन्तु संसार के वास्तविक स्वरूप की निरूपक हैं। इनको विस्मृत करने से ही हम संसार में भटक रहे हैं। जगत् की विनश्वरता का चिन्तवन अनित्य-भावना है। जगत के सब पदार्थ स्वतंत्र हैं, किसी का कोई बनाव बिगाड़ नहीं कर सकता अतएव मेरे लिए मेरे सिवाय अन्य कोई शरण नहीं है, ऐसा विचारना ही अशरण-भावना है। संसार की विषमता का चिन्तवन उसके स्वरूप का विचार ही संसार-भावना है। परपदार्थों से
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