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नैष्ठिकाचार
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पापों से छूट जाऊँ। भविष्य में मैं पापों से कैसे बचूँ इसका विचार करे। ऐसा करने वाले के पुराने पापों का क्षय होता है और नवीन पाप का बंध नहीं होता।
भगवान् का दर्शन, पूजन, स्वाध्याय, सामायिक, आलोचना, स्तुति, वन्दना और जप आदि समग्र धर्मकार्य स्वात्मबोध प्राप्त करने के लिए ही किए जाते हैं। जो लोग इन कार्यों को उनके प्रयोजन का विचार किए बिना करते हैं वे उसके यथार्थ फल को प्राप्त नहीं होते। उनके प्रत्येक धर्म कार्य केवल रूढ़िपरक हैं। उनसे परम्परा तो चलती है पर चालक का स्वतः का लाभ जैसा चाहिए वैसा नहीं होता है।
जैसे स्नान एक कार्य है, भोजन एक कार्य है, दन्तधावन एक कार्य है व टोपी लगाना एक कार्य है इसी प्रकार दर्शन-पूजन करना, सामायिकपाठ, आलोचनापाठ व स्तुतिपाठ पढ़ना एक कार्य है। जिनकी ऐसी दृष्टि है उन्हें जप आदि से कोई लाभ प्राप्त नहीं होता। अतएव प्रत्येक धर्मक्रिया करते समय उस कार्य के मूलोद्देश्य को सदा सामने रखना चाहिए। यही बात जप के सम्बन्ध में भी है। गृहस्थ को गृहाश्रम से २४ धण्टे आरंभादिक के कार्य लगे हैं और उनके पाप का सञ्चय भी अवश्य होता है। उसके दूर करने का एकमात्र उपाय जिनेन्द्र पूजन, नामस्मरण और गृह-रहित तपस्वियों को नवधा भक्तिपूर्वक दान देना ही है। जप के समय अपने दैनिक कृत्यों का हिसाब सही-सही हो जाना ही उसकी सफलता है।१४९।१५०।
प्रश्न:-श्राद्धेभ्यो ध्यानभेदानामुपदेशो विधीयते। यहाँ पर श्रावकों को ध्यानसंबंधी उपदेश भी आर्य आचार्य देते हैं
(अनुष्टुप्) रौद्रार्ते दुःखदे ध्याने त्यक्त्वा कुर्वन्तु शक्तितः। धर्मध्यानं सदा श्रीदं शुक्लध्यानस्य भावनाम् ।।१५१।।
रौद्रार्ते इत्यादि:- चतुर्विधं भवति ध्यानम् –आर्त रौद्रं धर्म्य शुक्लञ्चेति। तत्र आये दुर्ध्याने दुःखदे संसारकारणे स्तः। परे च धर्म्यशुक्ले मोक्षहेतू भवतः। तस्मात् कारणात् दुःखदे आर्तरौद्रे ध्याने त्यक्त्वा श्रीदं कल्याणप्रदं धर्मध्यानं शक्तितः सदा कुर्वन्तु तथा मोक्षस्य साक्षात् कारणस्वरूपस्य शुक्लस्य भावनां कुर्वन्तु।।१५१॥
किसी इष्ट पदार्थ या व्यक्ति के वियोग में शोकरूप चिन्तवन करना इष्ट वियोगज आर्तध्यान है। इसी प्रकार किसी अनिष्ट कारक पदार्थ या व्यक्ति के संयोग होने पर उसके
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