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नैष्ठिकाचार
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करने से बहुत कुछ धैर्य प्राप्त होता है तथा उस दुःख को सहने की सामर्थ्य प्राप्त होती है, संक्लेश परिणाम घटते हैं तथा पापबंध न्यून होता है। इन कर्म विपाकों का चिन्तन करना ही विपाकविचय नामक तीसरा धर्मध्यान है। संसार के स्वरूप का विचार करना कि लोक कितना बड़ा है, कहाँ पर क्या क्या रचनाएँ हैं, नरक कहाँ है, स्वर्ग कहाँ है, कहाँ भोगभूमि है तथा मुक्तिस्थान कहाँ है इत्यादि लोकालोक के स्वरूप का चिन्तवन करने से आत्मा को अपनी यथार्थ स्थिति का बोध होता है और वह विकृतावस्था छोड़ स्वभावावस्था में आने का प्रयत्न करता है। इस प्रकार लोक के संस्थानादि का चिन्तन करना संस्थानविचय नामा चौथा धर्मध्यान है। ____ शुक्लध्यान के भी ४ भेद हैं। पर पदार्थों से आत्मा के पृथक्त्व का विचार करना पहिला 'पृथक्त्ववितर्क विचार' नामक शुक्लध्यान है। पर का सम्बन्ध छोड़कर एकमात्र चैतन्य चमत्कारस्वरूप आत्ममात्र का एकाग्रचिन्तवन करना यही एकत्ववितर्कविचार' नाम का दूसरा शुक्लध्यान है। ये दोनों श्रुतकेवली के ही होते हैं। तीसरा शुक्लध्यान सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति है जो केवली भगवान् के ही होता है। योगों के चाञ्चल्य को न्यून करना ही इस ध्यान का तात्पर्य है। चौथा व्युपरतक्रियानिवृत्ति नामक शुक्लध्यान है। इसका तात्पर्य है जो सम्पूर्ण योगों की चञ्चलता बन्द हो जाय सर्व योग निरोधरूप होने से यह अयोग केवली भगवान् के ही होता है। इस ध्यान के समय मन, वचन तथा कायसंबंधी सर्व योग बन्द हो जाता है। श्वासोच्छ्वास का चलना, नाड़ीगमन, हृदयस्पंदन, रक्तसंचालन आदि सम्पूर्ण कायक्रियाएँ बंद हो जाती हैं। सर्व आस्रव रुक जाता है और अ इ उ ऋ ल इन पाँच अक्षरों के उच्चारण में जितना समय लगता है उतने में ही जीव संसार अवस्था का सदा के लिए परित्याग कर शाश्वत सुख का स्थान निरास्रव निर्बन्ध स्वरूप मुक्ति-स्थान को प्राप्त हो जाता है।
श्रावक का कर्तव्य है कि आर्त और रौद्र रूप दोनों दुर्थ्यानों का त्याग करे और धर्मध्यान का आराधन करे तथा शुक्लध्यान को प्राप्त करने की भावना करे। यही आत्मकल्याण का मार्ग है।१५१।
प्रश्नः- निर्जीवदेहदहनादिविधिः कथं मे कार्यो कृपाश्रय! गुरो! गृहिभिः स्वशान्त्यै।
हे गुरुदेव! मृतदेह का संस्कार किस विधि से करना चाहिए जिससे कि गृहस्थ अपवित्रता से दूर होकर आत्मशान्त्यर्थ धर्म का पालन कर सके
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