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श्रावकधर्मप्रदीप वियोग के लिए दुःखी होना बार-बार चिन्तवन करना अनिष्टसंयोगज नाम का दूसरा आर्तध्यान है। बीमारी आदि शारीरिक बाधा या मानसिक बाधा आने पर उसके दूर करने के लिए जो एकाग्रचिन्ता रहती है वह पीड़ाचिन्तन नामक तीसरा आर्तध्यान है। भविष्यकाल के लिए नाना प्रकार के भोगों की इच्छा करना निदान नाम का चौथा आर्तध्यान है। ये चार प्रकार के आर्तध्यान दुर्ध्यान हैं, अतः त्याज्य हैं। ____ इसी प्रकार चार प्रकर का रौद्रध्यान भी त्याज्य है। हिंसा में, हिंसा के कार्यों में
और उसके कारणों में प्रसन्नता होना और उसी की एकाग्र चिन्ता करना हिंसानन्द नामक रौद्रध्यान है। इसी प्रकार मिथ्या भाषण में, कपट करने में, दूसरों के ठगने में, धोखा देने और विश्वासघात करने में आनंद मानना उसमें एकाग्र होना मृषानन्द नाम का दूसरा रौद्रध्यान है। चोरी करने में, चोरी के उपाय बताने में, चोरी के उपाय ढूँढ़ने में और उनकी चर्चाओं के सुनने में आनन्द मानने संबंधी चित्त की एकाग्रता को स्तेयानंदी नामक तीसरा रौद्रध्यान कहते हैं। इसी प्रकार धनधान्यादि परिग्रह या स्त्रीपरिग्रह की चिन्ता में एकाग्र होना परिग्रहानन्द नाम का चौथा रौद्रध्यान है।
ये चारों प्रकार के आर्तध्यान और रौद्रध्यान संसारी प्राणियों के सदा बने रहते हैं। उनका मन सदा पापों में, पापों के स्मरण में और भविष्य काल में भी नाना प्रकार के पापोपायों के संग्रह में तल्लीन रहता है। वे उनमें ही आनन्द ढूँढ़ते हैं अतः इन दुर्थ्यानों के कारण ये चतुर्गति के दुखों के पात्र होते हैं अतः आत्महित वांछक धर्मज्ञ श्रावकों का कर्तव्य है कि इनका दूर से ही परिहार करें तथा इनसे बचने का सतत प्रयत्न करें और धर्मध्यान का आराधन करें।
धर्मध्यान भी चार प्रकार का शास्त्रकारों ने बताया है। उनका स्वरूप निम्न प्रकार है। सर्वप्रथम, आज्ञाविचयधर्मध्यान है। जिनेन्द्र भगवान् के उपदेश और उनकी आज्ञाओं के सम्बन्ध में अपने ध्यान को एकाग्र करना, उनका विचार करना और उनके प्रतिपालन की चिन्ता करना यह सब आज्ञाविचय है। संसार के स्वरूप का चिन्तवन कर उसके दुःखों से स्वयं भयभीत हो अपने को व संसार के अन्य दुखी प्राणियों को संसार परिभ्रमण के घोर दुखों से बचाने के उपायों का चिन्तवन करना उपायविचंय या अपायविचय नाम का दूसरा धर्मध्यान है। संसार में प्राणी कर्मोदय जनित दुखों से पीड़ित है अतःशारीरिक या मानसिक पीड़ा आने पर उद्विग्न हो उठता है, घबड़ाने लगता है तथा संक्लिष्ट परिणामी भी हो जाता है। ऐसे समय कर्म के उदय उदीरणा आदि के कार्यों का विचार
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