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श्रावकधर्मप्रदीप
व्यभिचार से पैदा किया हुआ वेश्यादि का धन, दूसरे को सताकर लाया गया धन, भाई आदि कुटुम्बियों के हक का धन तथा किसी पर जोर जुल्म करके छीनकर लाया गया धन इत्यादि धन का उपभोग करना दार्शनिक अभक्ष्य सेवन तुल्य मानता है।
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उक्त प्रकार कहे गये दार्शनिक के स्वरूप को जो भाग्यवान् विचार पूर्वक अपने जीवन में अपनाता है वह धन्य है । वही मोक्षमार्ग का सच्चा अधिकारी है। यह दार्शनिक अपने को सदा इससे भी उच्चतम बनाने के प्रयत्न में रहता है। दूसरी तीसरी आदि प्रतिमाओं पर आरूढ़ होने की उसकी सदा इच्छा रहती है। ऐसा उन्नतिशील धर्मात्मा दार्शनिक है।११७।
इस प्रकार आचार्य श्री कुन्थुसागर विरचित श्रावकधर्मप्रदीप व पण्डित जगन्मोहनलाल सिद्धान्तशास्त्री कृत प्रभानामक व्याख्या में तृतीय अध्याय समाप्त हुआ ।
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