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श्रावकधर्मप्रदीप
भोजन के अनन्तर दिवस सम्बन्धी अन्य आजीविका आदि कार्यों को यथायोग्य सम्पादन कर सन्ध्या से पूर्व ही भोजनादि से निवृत्त हो सन्ध्याकाल की सामायिक करे। तदनन्तर श्री जिनेन्द्र का दर्शन तथा स्तवन आदि कर साधर्मी भाइयों के साथ बैठकर शास्त्रश्रवण करे तथा धर्मवार्ता करे। रात्रि में यथासमय प्रमाद आने पर पञ्चपरमेष्ठी का स्मरण करके निद्रा को अङ्गीकार करे। यह श्रावक की सामान्य दिनचर्या है। विशेषरूप से अपनी प्रतिमा के व्रतों के अनुरूप कार्यों को करे तथा शान्तिदायक स्वपरोन्नतिकारक अन्य अन्य भी कार्य करना श्रावक का कर्तव्य है। इस प्रकार सुयोग्य रीति से धर्मपालन करते हुए जो श्रावक अपना समय व्यतीत करता है उसका संसार परिभ्रमण छूट जाता है और मानव जन्म सफल होता है।।१२०।१२१।
प्रश्न:-गर्भाधानक्रियादीनां किं रूपं कति ताः वद। हे गुरु! गर्भाधानादि क्रियाएँ कितनी हैं और उनका क्या स्वरूप है, कृपाकर कहें
(अनुष्टुप्) गर्भाधानक्रियादीनां संस्काराणां यथायथम् । काले काले विधिः कार्यः श्रावकैर्धार्मिकैर्मुदा ।।१२२। येनाशुभक्रियायाः स्यानिवृत्ति : सुखदे शुभे । प्रवृत्तिः प्राणिनां श्रीदा सदा भूमण्डलेऽखिले ।।१२३।।
गर्भाधानेत्यादि:- गर्भाधनादयः षोडशसंस्कारा भवन्ति श्रावकाणाम् । यथा घृतसंस्कारात् मृनिर्मितोऽपि घटः चिक्कणो भावति तथा उत्तमसंस्कारात् बालका अपि धर्मात्मानः साहसिकाच भवन्ति। तदभावात् कुसंस्कारात् त एव पापिनः कातराश्च संजायन्ते। तस्मात् कारणात् समये-समये गर्भाधानक्रियादीनां संस्काराणां विधिः धार्मिकैः श्रावकैः यथायथं सदा कार्याः। धार्मिकक्रियाप्रभावात् प्राणिनां अखिले भूमंडले सदा शुभकार्ये श्रीदा प्रवृत्तिः सञ्जायते तथा अशुभक्रियातो निवृत्तिः। शुभप्रवृत्तिस्तु परम्परया लोकप्राप्तेरपि कारणं भवति।तस्मात् सर्वप्रयत्नतः बालकानां संस्कारः अवश्यमेव करणीयः।१२२।१२३।।
गर्भाधान आदि सोलह संस्कार हैं जो श्रावकों को अवश्य करने चाहिए। जैसे घी के संस्कार से मिट्टी का घड़ा भी सचिक्कण हो जाता है ऐसे ही उत्तम संस्कारों से बालक भी धर्मात्मा और साहसी बन जाते हैं। यदि बालकों को उत्तम संस्कार न हो, तो बुरे संस्कारों के प्रभाव से वे ही बालक पापी और कायर बनते हैं। कुसंस्कारों के दुष्प्रभाव के अनेक उदाहरण प्रत्यक्ष में देखे जाते हैं। सुसंस्कृत व्यक्ति यदि गुणी न भी हो तो वह दुर्गुण नहीं बन सकता, इतना लाभ भी थोड़ा नहीं है।
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