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नैष्ठिकाचार
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हटाकर अहिंसा धर्म का भाव अंकित करना चाहिए। वहाँजाना दोषास्पद नहीं है। दोषों का उत्पादन तो सर्वत्र प्रत्येक व्यक्ति के अधीन है। विदेशों में जाकर भी अपने पवित्र धर्म की रक्षा करनेवाले अनेक व्यक्ति देखे जाते हैं और अनेक स्वदेश में विद्यमान होते हुए भी हिंसा करते हैं।
भारत निवासी अहिंसक हों और उनके बाहिर विदेशों में रहनेवाले हिंसक ही हों ऐसी कोई व्याप्ति नहीं है। सब लोग सर्व देश में धर्म या अधर्म पालने के लिए स्वेच्छा से समर्थ ही हैं। इसलिए जिनधर्म की प्रभावना के लिए सम्पूर्ण भूमण्डल में भी जाना पड़े तो जाना उचित है। अपने परमप्रिय अहिंसा धर्म का परिपालन करते हुए कहीं भी जाना अधर्म नहीं है। धर्म प्रभावना से ही मानव जन्म सफल है। अतः सर्व प्रकार के प्रयत्नों द्वारा सम्पूर्ण विश्व में अहिंसा का डंका बजाओ और हिंसा को दूर करो। इस पवित्र कार्य से तुम्हारी मनुष्य पर्याय की प्राप्ति सार्थक होगी और परम्परा से मुक्ति की प्राप्ति भी सुगम होगी।१३१।१३२।
प्रश्नः-वात्सल्यभावो ध्रियते किमर्थ गुरो कृपाब्ये वद मे हितार्थम् ।
हे कृपासिन्धु गुरुदेव! वात्सल्य भाव किसलिए धारण किया जाता है? कृपाकर मेरे हित के लिए निरूपण कीजिए
(इन्द्रवजा) मिथ्याप्रपञ्च प्रविहाय मोहं श्राद्धैश्चिदानन्दपदाश्रितैर्वा ।। वात्सल्यभावोऽपि मिथः प्रशान्त्यै सर्वैश्च सार्धं सततं विधेयः ।।१३३।।
मिथ्येत्यादिः- परस्परिक व्यवहारे य खलु शिष्टाचारः प्रदर्श्यते स उचित एव सज्जनानाम्। तथापि तत्र स व्यवहारः सरलचित्तेनैव करणीयः। केवलं मिथ्याप्रपञ्चेन मात्सर्येण छलेन वा कृतोऽपि सद्व्यवहारो न गुणाय प्रभवति। ये खलु काञ्चनकामिन्यादिषु स्वेन्द्रियभोगेषु च मोहितमतयः स्वार्थसाधनायैव सभ्यतायाः मिथ्याप्रपञ्चं वितन्वन्ति न ते कदाचिदपि लोके कीर्तिं लभन्ते। एतान्मायाविनो न कश्चित्प्रत्येति लोके तस्मात् सम्यग्दृष्टिभिः श्रावकैः स्वचैतन्यसुखास्वादिभिः प्रशान्त्यै परमशान्तिप्राप्त्यर्थं परस्परं निष्कपटचित्तेन धर्मप्रम्णा वात्सल्यभावो विधेयः।१३३।।
परस्पर के व्यवहार में जो शिष्टाचार प्रदर्शन किया जाता है वह.शिष्ट पुरुषों के योग्य ही है, अनुचित नहीं है; किन्तु वह सरलचित्त से करना चाहिए। केवल मायाचार से मिथ्या प्रपञ्च करना और झूठे ही सद्व्यवहार का प्रदर्शन करना हानि के लिए ही है, लाभ के लिए नहीं। जो अपने इन्द्रिय भोगों में तथा इन्द्रिय भोगों के लिए उपयोगी धन
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