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नैष्ठिकाचार
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सब पुरुषार्थों का मूल धर्म पुरुषार्थ है। उसके साथ रहने पर शेष तीन पुरुषार्थ संज्ञा को प्राप्त होते हैं, अन्यथा वे भी पुरुषार्थ नहीं कहलाते। प्रत्येक गति में लोभादि कषायों के उदय से जीव कुछ न कुछ संग्रह का प्रयत्न करता है पर वह अर्थ पुरुषार्थ नहीं हो सकता। जबतक कि वह धर्म और नीति से संयुक्त न हो और उसका उद्देश्य अपना, अपने कुटुंब का, अपनी जाति व देश के भाइयों का तथा दीन और दुखी भाइयों का परिपालन न हो। यह पुरुषार्थी ही जिनालय निर्माण करा सकता है, पापनाशक उत्तमोत्तम श्रद्धा और भक्ति से परिपूर्ण पूजा विधानादि कार्य कर सकता है। दीन दुखियों का उद्धार कर सकता है। उक्त पात्रों को दान देकर अपना जन्म सफल कर सकता है। जो उक्त प्रकार के पुरुषार्थहीन हैं वे केवल अपने उदर की पूर्ति ही येन केन प्रकारेण कर सकते हैं पर अन्य धर्म के और परोपकार के काम उनसे नहीं हो सकते।
इसी प्रकार जो न्यायनीतिपूर्वक प्राप्त भोगोपभोगों का सेवन नहीं करता तथा चोरी आदि से, परवञ्चना से, विश्वासघात से छीनकर धनसंग्रह करता है वह कभी काम पुरुषार्थ का साधन नहीं कर सकता। धर्म का यथासमय साधन करते हुए अपनी न्यायपूर्वक बनाई हुई आर्थिक स्थिति के अनुसार जो भोगोपभोग सेवन करता है वही तृतीय पुरुषार्थ वाला है। अन्यथा यथाप्राप्त भोगों को पशु भी भोगते हैं। देव भी भोगते हैं। नारकी तो पापसामग्री का भोग करता है। पर यह सब काम पुरुषार्थ नहीं है। काम पुरुषार्थी केवल शारीरिक तृष्णा की शान्ति के लिए अपने मन का संयम रखते हुए ही भोग करता है। मात्रा से भोजन करता है, मात्रा से वस्त्र पहिनता है, मात्रा से ही चक्षु और श्रोत्र के विषयों को अंगीकार करता है। मात्रा से ही सुगंधि सेवन करता है। मात्रा से ही स्त्रीभोग करता है। अतिमात्रा से सेवित ये सब विषय व्यक्ति को निर्धनी तथा शरीर संपत्ति रहित बना देते हैं। वह अधर्म सेवन में प्रवृत्त हो जाता है और पापसञ्चय कर इस लोक में भी निन्द्य जीवन व्यतीत करता है और परलोक में भी नरकादिकों में अनेकानेक दुखों का भागी होता है।
उक्त प्रकार से परस्पर की अनुकूलता से सेवित ये तीनों पुरुषार्थ उद्यम या उद्योग कहलाते हैं। ये गृहस्थ को ऐन्द्रियक सुखसाधन के कारण होते हैं। पुरुषार्थी ही धनवान्, कीर्तिमान्, परिपुष्टशरीर, सुन्दराकृति, यौवन सुख का भोक्ता, धर्मात्मा, न्यायप्रिय, देश और विश्व का कल्याणकर्ता तथा परम सुखी होता है।
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