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नैष्ठिकाचार
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असदिव असदपि सदिव लेखनं इत्यादि सर्वमपि मिथ्याप्रवञ्चनेन वञ्चनम् चौर्यमेव। तत्सर्वमपि चौर्य त्याज्यमेवव्रतिना इत्येवं प्रकारेणाचौर्यव्रतग्रहणं सदा सुखदम्भवति।चौर्यं च सदा भवपरम्पराकारकम्भवतीति ज्ञातव्यम् ।९९। ____ जैन सिद्धान्त में पर द्रव्य का ग्रहण ही चौर्य है ऐसा चोरी का बहुव्यापक लक्षण है। इस लक्षण के अनुसार अचौर्यव्रत का परिपूर्ण पालन करनेवाले साधुजन घर, कुटुम्ब व धनादि द्रव्य इन सबका परित्याग कर नग्न देह ही वन में देह के स्नेह से रहित होकर विचरते हैं। वे सब पर द्रव्यों से अपने को पृथक् अनुभव करते हुए एकान्त वन में केवल
आत्मनिधि को, जिसे उनकी आत्मा अनादि से भूली हुई थी, खोजने का प्रयत्न करते हैं। उनका यह दृढ़ विश्वास है कि मेरा आत्मा ही मेरा द्रव्य है, मेरे आत्मा के असंख्यप्रदेश ही मेरा निवास स्थल है। आत्मा से विभिन्न कोई दूसरा आत्मा या दूसरे निर्जीव पदार्थ मेरे नहीं हैं। मेरा मैं ही हूँ, दूसरा पदार्थ दूसरा है, वह मेरा कदापि नहीं हो सकता। यह पृथिवी या आसमान मेरा निवास स्थल है यह उपचार है, क्योंकि मेरे साथ न पृथिवी जाती है और न आसमान मेरे साथ चलता है। मेरे आत्मा के असंख्य प्रदेश ही सदा मेरे पास हैं, और उनमें ही रहता हूँ, वे ही मेरे निवासस्थान हैं। मेरे ज्ञान, दर्शन, श्रद्धा, चारित्र, शक्ति, आनन्द, क्षमा, सरलता, विनयशीलता, सत्यता, पवित्रता और अकिञ्चनता ये मेरे गुण हैं, वे ही मेरी निधियाँ हैं। इनमें ही मेरे सब सुखों का भण्डार भरा है। ये सब मेरे भाव हैं। इनपर किसी का स्वत्व नहीं है। गृहादिक, सुवर्णादिक, भूमि आदिक व अन्न, वस्त्र, सोना, चाँदी, मणि, माणिक्य, दासी और दास आदि सर्व पर हैं, मेरे नहीं। ये सब मेरे स्वरूप से और मेरी सत्ता से सर्वथा भिन्न हैं। अतएव इनका किञ्चिन् मात्र भी ग्रहण चोरी है, महान् पाप है। मेरी आत्मपरणतियों का सुन्दर परिवर्तन ही मेरी उन्नति है और उनका पर पदार्थोन्मुखी परिवर्तन ही मेरी अवनति है। परपदार्थ अर्थात् धनादिक या गृहादिक या कुटुम्बादिक की दृष्टि से उनकी न्यूनता मेरी अवनति नहीं है, क्योंकि वे पदार्थ पर हैं, मेरे नहीं हैं। मेरी सत्ता से विभिन्न पदार्थों की उन्नति ही मेरी उन्नति है, ऐसा मानना मिथ्यात्व है तथा चोरी है। इस प्रकार से आत्मनिधि की खोज करनेवाले और उसमें ही तल्लीन रहनेवाले देह के स्नेह से रहित निःसंग साधु परम अचौर्य व्रत के परिपालक हैं। ____ जो गृहस्थ हैं, ऊपर लिखे सत्यार्थ विचारों और तन्निहित सत्य तत्त्वों पर जिनकी परिपूर्ण श्रद्धा है, किन्तु अपनी कमजोरी के कारण जो परिगृहीत परपदार्थों को अपना पदार्थ न मानते हुए भी परित्याग करने में अशक्त हैं, परमुखापेक्षी हैं, वे इस महान् अचौर्य
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