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नैष्ठिकाचार
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का भय, अधिकार छीनने का भय, जीविका नष्ट कर देने का भय, कार्य बिगाड़ देने का भय, उचित और न्यायसंगत होने पर भी सहायता न देने का भय, शस्त्राघात का भय, गुप्त बात प्रकट कर देने का भय, पाप या चोरी प्रकाशन कर देने का भय इत्यादि भय दिखाकर भी किसी महाजन का, नौकरी करनेवाले का, पापी का, चोर का, निर्बल का, दीन का और दरिद्र का धन ले लेना भी चोरी ही है।
इस प्रकार से किसी भी आड़ी टेढ़ी क्रियाओं से दूसरे को सताकर उसके परिश्रम के द्वारा कमाए हुए धन को नैतिक उपायों को छोड़कर अन्य उपायों द्वारा ले लेना चोरी है। बल्कि यह कहना अधिक ठीक होगा कि यह न केवल चोरी है बल्कि डाका है। चोरी तो जिसका द्रव्य है उसकी अजानकारी में छिपकर की जाती है पर ऐसा करने पर भी चोरी करने वाला भयभीत होता है और समझता है कि मैं चोरी कर रहा हूँ। पर अनैतिक तरीकों से उसे दबाकर या भय दिखाकर जो धन ग्रहण किया जाता है वह चोरी का सरताज डाका है। ___साहूकार, राज्याधिकारी, पूँजीपति, रईस, जमींदार, राजा और महाराजा तथा इनके सब सहायक अमात्य, सेनापति और सैनिक इत्यादि यदि नैतिक धर्मसम्मत उपायों को उपयोग में लावें तो ही वे उक्त पद के अधिकारी हैं। यदि वे भी अनैतिक और धर्मबाह्य उपायों द्वारा अपनी प्रजा से, मजदूरों से और गरीबों से धन ले लेते हैं तो वे भी अत्यन्त शक्तिशाली डाकू ही हैं। वे कभी चौर्य के पाप से नहीं बच सकते। सबसे बड़ी चोरी वही है या ऐसा कहा जा सकता है कि चोरी की यह अन्तिम सीमा है। अतएव अत्यन्त पापदायक है। वह नरक निगोदवास का निश्चित कारण है।
इस प्रकार चौर्य का स्वरूप समझकर जो उससे दूर रहते हैं उनकी भवपरम्परा नष्ट हो जाती है अर्थात् वे दुःखपरम्परा से मुक्त हो जाते हैं और यही उनका सुखदायक अचौर्यव्रत है।९९।
प्रश्न:-ब्रह्मचर्यव्रतचिह्न किं मे वदास्ति भो गुरो। हे गुरुदेव! ब्रह्मचर्य व्रत का क्या स्वरूप है, कृपाकर कहें |
(उपजातिः) त्याज्या स्वकीया ललना यदि स्यात् कथापरासां वद काऽस्ति लोके। पूर्वोत्तरीतिर्यदि वास्त्यसाध्या त्याज्या परस्त्री स्वपरात्मशान्त्यै।।१०।।
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