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नैष्ठिकाचार
और लोभ तथा हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुंवेद, और नपुंसकवेद ये ४ अन्तरङ्ग परिग्रह हैं और खेत, मकान, सोना, चांदी, रुपया, अन्न, नौकर, नौकरानी, वस्त्र, कपड़े ये दश बाह्य परिग्रह हैं। इन दोनों प्रकार के परिग्रहों को पापदायक कुसङ्ग समझकर जो छोड़ देते हैं वे परिग्रह त्याग महाव्रती हैं और जो सम्पूर्ण रीति से उभय परिग्रहों को छोड़ने में असमर्थ हैं वे यथायोग्य अपनी आवश्यकताओं को कम करते हुए परिग्रह का प्रमाण करते हैं और परिमित में अपना जीवन निर्वाह करते हुए शेष सब परिग्रह का त्याग करते हैं वे परिग्रह परिमाणाणुव्रती माने गये हैं ।। १०१ ।।
उपसंहार
(अनुष्टुप्)
पञ्चाणुव्रतचिह्नं हि प्रोक्तमेवं शिवप्रदम् ।
पालयन्तु सदा भव्याः स्वान्यात्मशान्तये मुदा । । १०२ ।।
पञ्चेत्यादिः - एवमुपर्युक्तप्रकारेण पञ्चाणुव्रतचिह्नं पञ्चपापानामेकदेशत्यागरूपमणुव्रतपञ्चकं प्रोक्तमाचार्यश्रीकुन्थुसागरेण। तत्खलु परम्परया शिवप्रदमस्ति । स्वान्यात्मशान्तये स्वात्मनः परेशामपि शान्तिमिच्छन्तो भव्याः सदा तत्पञ्चाणुव्रतं मुदा पालयन्तु।। १०२ ।।
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ऊपर वर्णित प्रकार से परम्परा से मोक्षसुख प्रदान करनेवाले पञ्च महापापों के एकदेश परित्यागरूप पञ्चाणुव्रत जो गृहस्थ श्रावकों के योग्य हैं वर्णन किए गए हैं। जो जीव अपना कल्याण चाहते हैं तथा परोपकार की इच्छा रखते हैं उन्हें इनका बड़े प्रेम से परिपालन करना चाहिए।
पाप करनेवाला प्रत्येक व्यक्ति न केवल अपने लिए दुःखोत्पादक है बल्कि वह परिवार, कुटुम्ब, जाति, समाज, प्रान्त व देश यहाँ तक कि संसार का शत्रु है। अशान्ति उत्पन्न करने वाला है, अतएव स्वपर हानिकारक महान् अशान्ति के हेतु इन पांचों पापों का त्यागकर अणुव्रतों का पालन करना चाहिए । १०२ ।
इत्यणुव्रतस्वरूपं वर्णितम् ।
-अष्टमूलगुणनिरूपणम्
प्रश्नः - श्राद्धमूलगुणानां तु किं चिह्नं मे गुरो वद ।
हे गुरुदेव ! जिनेन्द्रोक्त तत्त्वों पर दृढ़ श्रद्धा रखने पर भी श्राद्ध ( श्रावक ) को आत्महितकारक वस्तु तो चारित्र है, अतः चारित्र में मूल व्रत क्या है, कृपया कहें
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