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श्रावकधर्मप्रदीप
करता है, पराया धन हड़प जाता है, मिथ्या भाषण द्वारा स्वार्थसिद्धि के लिए दूसरों पर झूठा दोषारोपण करता है, पराई बहू-बेटियों पर खोटी निगाह करता है और अपने घमण्ड में चूर होकर तरह-तरह के अन्याय करते हुए भी नहीं डरता।
उसकी ये सब बातें उसे पारमार्थिक हानि तो पहुँचाती ही हैं पर लौकिक हानि भी पहुँचाती हैं। वह लोक में निंद्य होता है, पापी गिना जाता है, आततायी और अत्याचारी माना जाता है, सभी लोग उसके पराभव की कांक्षा करते हैं और उसके पराभूत होने पर आनंद मानते हैं। अतः प्रत्येक व्यक्ति को चाहिए कि अनिष्टकारक महान् दुःखदायी इस “शक्तिमद” को कभी पास न आने दे। 'शक्ति' की प्राप्ति को दीनों के उद्धार में व व्रत संयम के पालन में लगावे, जिससे कि उसका इस लोक और परलोक में कल्याण हो।४८।
प्रश्न:-चिह्नमृद्धिमदस्यास्ति ब्रूहि मे सिद्धये गुरो। धनमदस्य यच्चिह्नमस्ति तत् मे कार्यसिद्ध्यर्थं हे गुरो! कथय। । धन का मद क्या है, यह हे गुरो! मेरे कार्य की सिद्धि के लिए कृपया कहें
(वसन्ततिलका) ऋद्धिः सुविस्मयकरी व्रतदानधर्माज्
ज्ञात्वेति शान्तिसुखदा भवतीह भव्य। ऋद्धेविहाय कुमदं व्रतदानधर्म
भक्त्या सदा कुरु यतश्च तवेष्टसिद्धिः ।।४९।। ऋद्धीत्यादि:- हे भव्य! इह लोके व्रतदानधर्मात् व्रतानाम्परिपालनात् सुपात्रदानात् दयादाक्षिण्यादिधर्मादेव सुविस्मयकरी लोकविस्मयकरी शांतिसुखदा शान्तिप्रदा सुखप्रदा च ऋद्धिः धनादिवैभवं भवति संप्राप्यते। इति ज्ञात्वा ऋद्धेः कुमदं कुत्सितो मदः कुमदः, यथा-ऐश्वर्यमत्तानां पुरुषाणां विचित्रा स्थितिर्भवति, न ते गणयन्ति देवशास्त्रगुरूनपि, तेषामपि निरादरस्तैः क्रियते का कथान्येषाम् | अहमेव देवस्थानरक्षकोऽस्मि, मम गृहे यदि धनमस्ति तर्हि अनेके देवालयाः अनेकाश्च देवमूर्तयो निर्मापिता भविष्यन्ति, यद्यविनयादरक्षणाच्च शास्त्राणि कृमिकीटैक्षितानि तर्हि का नो हानिः? अन्यान्यपिधनप्रदानेन विद्वद्भिः लेखकैश्च लेख्यानि भविष्यन्ति, मुनिसंघस्याहमेव संचालकोऽस्मि, धनाभावे कीदृशी गतिः स्याद् मुनीनाम्, सर्वोऽपि धर्मो मदधीन एव, मम दानादेव जिनालयेषु जिनपूजा भवति, अनेके विद्वांसः पठन पाठनं च कुर्वन्ति, रुग्णाः दीनजनाः औषधानि प्राप्नुवन्ति चतुर्विधसंघस्य आहारादिकं संपद्यते। इत्यादि प्रकारेण धनमदः हिंसादिपञ्चमहापातकानामपि कारको ऋद्धिमद एव, सोऽभिमानी स्वधनबलेन महाहिंसामपि गोपयति। महदप्यसत्यं सत्ये समारोपयति,
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