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श्रावकधर्मप्रदीप
चेष्टा करे और सदा उसकी गुणोन्नति का ध्यान रखे। सारांश यह है कि उसे हर प्रकार से अपनाए जिससे धर्म की वृद्धि हो।
ग्रंथकार आचार्य ने 'वात्सल्य' का अर्थ यद्यपि 'प्रीति' किया है, किन्तु उस शब्द का प्रयोग करते हुए भी उन्होंने वात्सल्य शब्द के पूर्णार्थ को व्यक्त करने के लिए उसे उपयुक्त नहीं माना। अतः यथार्थ अर्थ का सम्यग्बोध कराने के लिए 'स्वात्मवत्' ऐसा उदाहरण देकर स्पष्टीकरण किया है। इसका तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार प्रत्येक मनुष्य अपने हित का, अपने सुख-दुःख का अपनी समुन्नति का, अपनी कीर्ति रक्षा का, अपने शरीर की रक्षा का, अपने धर्म की रक्षा का, वृद्धि और अपने गुणों को उन्नति का सदा ध्यान रखता है उसी तरह उसे अपने सहधर्मी के लिए भी रखना चाहिए। यही सम्यग्दृष्टि का 'वात्सल्य' गुण है।
यद्यपि नीतिकार ने कहा है कि “संसृतौ व्यवहारस्तु न हि मायाविवर्जितः” अर्थात् संसार का कोई भी व्यवहार माया अर्थात् कपट से रहित नहीं होता। बिना कुछ न कुछ कपट व्यवहार के सांसारिक व्यवहार नहीं चलता। अनेक स्थलों में तो कपट व्यवहार 'सभ्यता' में शामिल है। मायाचारी सहित मिथ्याकीर्तन शिष्टता और नागरिकता की कोटि में गिना जाता है। यदि किसी आगत व्यक्ति का (भले ही उसमें वे गुण न हों) आप उत्तमोत्तम शब्दों द्वारा स्वागत न करें तो आप अशिष्ट, ग्रामीण और सभ्यता रहित व्यक्तियों की गणना में गिने जाँयगें जब कि उसका मिथ्याकीर्तन कर स्वागत करना, सभ्यता, शिष्टता और नागरिकता की मर्यादा में गिना जाता है। ऐसा होते हुए भी सम्यग्दृष्टि उससे अर्थात् सहधर्मी से सभ्यता की रक्षार्थ शिष्ट व्यवहार नहीं करता बल्कि हितैषिता के नाते उससे समुचित स्नेहमय व्यवहार करता है। उसका यह सद्व्यवहार उसके 'वात्सल्य' गुण के कारण ही है।७५।
उपसंहार
(अनुष्टुप्) श्रावकाणां प्रबोधार्थं विशेषाष्टगुणा मया। प्रोक्तास्ते व्यवहारेऽपि मिथस्सत्प्रीतिकारकाः।।७६।
श्रावकाणामित्यादिः- प्रोक्तास्ते संवेगादयोऽष्टौ गुणाः यद्यपि सम्यग्दृष्टेर्भवन्त्येव। सम्यक्त्वे सति तेषामुत्पत्तिर्भवत्येव। यदि न स्यात्तर्हि सम्यक्त्वस्यैव हानिः स्यात्। सम्यक्त्वस्य फलानि
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