________________
१३२
श्रावकधर्मप्रदीप
कर्तव्य है। दुष्ट लोग प्रजा में अशान्ति उत्पन्न करें, उनकी खेती नष्ट करें, उनके पशु चुरा लें, उनका द्रव्य (धन) चुरा लें, उनकी स्त्री बच्चों का अपहरण करें, उनके धर्मस्थान ध्वंस करें, धर्मात्मा को सतावें, अहिंसकों पर अत्याचार करें, सदाचारी शान्त प्रजा को उद्विग्न करें तो राजा का और राज्याधिकारियों का कर्तव्य हो जाता है कि वे उन दुष्ट आततायी लुटेरों का तथा ऐसा अन्याय करनेवाले दूसरे राष्ट्रों का सामना करें और उन्हें हर प्रकार से रोकें ताकि वे उक्त उपद्रव कर अशान्ति न पैदा कर सकें। इस रोक-थाम में अनेक उपाय काम में लाए जाते हैं पर उनमें जब सफलता नहीं मिलती और दुष्ट अपने मार्ग पर बढ़ते जाते हैं तब उनके रोध करने में उनकी हिंसा भी हो जाती है। यह हिंसा विरोधी हिंसा है। इसका परित्याग भी गृहस्थ कभी नहीं कर सकता। यह हिंसा सङ्कल्पी हिंसा कदापि नहीं है। सङ्कल्पी हिंसा में निरपराध जीवों का घात होता है जब कि विरोधी हिंसावाला एक चीटी को भी संकल्प पूर्वक नहीं मारता। जो निरपराध एक चींटी को भी नहीं मारता बह निरपराध अन्य प्राणियों को क्यों सतायगा? पर सापराधको वह दण्ड देता है और शान्त धर्मात्माओं की रक्षा करता है। ऐसा करने में यदि सापराध की मृत्यु भी हो जाय तो वह उसके लिए लाचार है।
विरोधी हिंसावाले जीव का लक्ष्य हिंसा नहीं है। बल्कि अन्य आतताइयों द्वारा फैलाई जानेवाली महान् हिंसा का प्रतिरोध उसका लक्ष्य है। यदि गृहस्थ विरोधी हिंसा से परहेज करे तो वह शान्ति से धर्म का परिपालन नहीं कर सकता। जिन दुष्टों को धर्म-कर्म का, न्यायान्याय का और कर्तव्याकर्तव्य का कुछ भी विचार नहीं है, दूसरों को सताकर उनका स्वत्वापहरण ही जिनका एकमात्र उद्देश्य है और जो दूसरों का घात करके भी अपनी विषयवासनाओं और जघन्य स्वार्थों को सिद्ध करना चाहते हैं वे न्यायवान् शान्त और धार्मिक प्रजा को पनपने नहीं दे सकते। उनकी प्रमुखता में सर्वत्र अशान्ति, कलह, लूट,फूट, मारपीट, अन्याय, असदाचार तथा हिंसा का ही प्रसार होगा और सर्वप्रजाजन दुःखी होंगे। इस महान् उपसर्ग को दूर करने के लिए, सुखशान्ति की वृद्धि के लिए, धर्ममार्ग को अक्षुण्ण रखने के लिए, अहिंसकों को प्रोत्साहित करने के लिए और सदाचारी की वृद्धि के लिए दुष्टों का निग्रह करना गृहस्थ का धर्म हो जाता है। उत्तम उद्देश्य की पूर्ति का साधन होने से विरोधी-हिंसा गृहस्थ के लिये कर्तव्य हो जाती है।
यदि गृहस्थ अपने पदानुकूल उक्त कर्तव्य को पूरा न कर सके तो उसे समस्त विषय वासनाओं का परित्याग कर देना चाहिए। उसे न स्त्रीपरिग्रह का अधिकार है और
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org