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श्रावकधर्मप्रदीप
हिंसा चार प्रकार से विभाजित की गई है-उद्योगी, आरम्भी, विरोधी और सङ्कल्पी। इन चारों का क्रमशः स्वरूप कहते हैं-१ उद्योगीहिंसा-खेती, सेवा, शिल्प कार्य, व्यापार
और लेखनादि कला के करने में तथा धर्म, देश व प्रजा के संरक्षणार्थ शस्त्र ग्रहण आदि के द्वारा अपनी आजीविका करने में जो हिंसा होती है वह सब उद्योगी हिंसा है। गृहस्थ इसे त्यागने में असमर्थ रहते हैं, क्योंकि गृहस्थों के लिए आजीविका मुख्य प्रश्न है। गृहस्थ का धर्म सृष्टि का पालन, संरक्षण और धर्मात्माओं की सेवा करना है। यदि गृहस्थ निरुद्योगी हो जाय तो उक्त सभी कार्य नहीं हो सकते। गृहसम्बन्धी उद्यम न करनेवाला व्यक्ति या तो साधु हो सकता है, या दर-दर का भिखारी। सारांश यह है कि इस हिंसा का त्याग गृहस्थ नहीं कर सकता। २-आरम्भी हिंसा-गृहस्थी के कार्यों में जैसे रसोई बनाना, पानी भरना, घर बनाना, घर की स्वच्छता, वस्त्रों की स्वच्छता, शरीर की स्वच्छता, साग सब्जी बनाना, जमीन खोदना, रोगी की परिचर्या करना, देवपूजा, गुरु का सम्मान, आहारादि दान, पशुपालन, गरीबों की रक्षा और बच्चों का परिपालन इत्यादि कार्यों में भी हिंसा होती है, किन्तु यह हिंसा गृहस्थ के लिए अपरिहार्य है। वह उसका परित्याग करने में असमर्थ है। यद्यपि व्यापार और आरंभ के कार्य गृहस्थ दयावान होकर जीवों की हिंसा का बचाव करते हुए देखभाल कर ही करेगा, क्योंकि ऐसा करना उसका कर्तव्य है तो भी कुछ ऐसे जीव हैं जिनकी हिंसा बचाते-बचाते भी हो जाती है।
गृहस्थ का यह साधारण कर्तव्य है कि प्रत्येक कार्य करते समय जीवदया का ध्यान रखे। मार्ग में चले तो मार्ग को देखता हुआ चले और यह ध्यान रखे कि किसी जीवधारी पर मेरा पैर न पड़ जाय। किसी वस्तु को उठावे या रखे तब भी यह ध्यान रखे कि इनके नीचे कोई जन्तु न आजाय। सोना बैठना, मल-मूत्र का त्याग करना, थूकना, वस्त्र प्रक्षालन
और शरीर प्रक्षालन आदि जितने गार्हस्थिक आरंभ के कार्य बताए हैं उन सबमें वह जीव रक्षा का सतत ध्यान रखता है।
आजीविका के साधनभूत उद्योग-धंधों में भी वह यह ध्यान रखता है तथा ऐसे धंधों को छोड़कर वह अल्प सावध वाले धंधों को तलाश कर उन्हें स्वीकार करता है। भले ही उनमें आर्थिक लाभ न्यून हो पर वह अपनी लोभ वृत्ति को कमकर सन्तोषवृत्ति को स्वीकार करके अपना कर्तव्य परम धर्म ‘जीवदया' का पालन करता है।
असि, मसि, कृषि, सेवा, शिल्प और वाणिज्य इन षट् कर्मों द्वारा आजीविका करने का उपदेश भगवान् श्री ऋषभ देव ने युग के प्रारंभ में दिया था और जिन-जिन लोगों
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