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श्रावकधर्मप्रदीप
अपकीर्ति और धन की लूट आदि हानियों को देखकर सतर्क हो जाय और वेश्या की संगति छोड़ दे। इस भय से वेश्या उसे शराब पीने की बुरी आदत जरूर डाल देती है। जब वह मनुष्य शराब की बेहोशी में अनवरत व्यभिचार करते-करते शरीर से भी बेकाम हो जाता है, निर्धन हो जाता है तथा समाज, सज्जन गोष्ठी, परिवार और मित्र आदि सबसे वञ्चित हो दर-दर की भीख माँगने योग्य हो जाता है तब वह वेश्या उसे घर से इस प्रकार निकाल देती है जैसे किल्ली मृत पशु को रक्त विहीन देखकर छोड़ देती है।
घर के लोग हिस्सा बाँट कर पहिले से ही उसे अलग कर देते हैं ताकि वह अपने हिस्से का ही धन बरबाद करे सब घर का धन व आजीविका नष्ट न कर सके। वेश्या द्वारा परित्यक्त निर्धन व्यक्ति को कोई कुटुंबी आश्रय देने को तैयार नहीं होता। इतना ही नहीं, उस व्यभिचारी हीनाचारी मद्यपायी को समाज का भी कोई व्यक्ति पास बैठाने को तैयार नहीं होता। उससे लोग ऐसे बचते हैं जैसे छूत की बीमारी से बचा जाता है। कोई धनी उससे लेने-देन व्यापार का व्यवहार नहीं करना चाहता, क्योंकि वह जानता है कि इसके पास पैसा तो है ही नहीं साथ ही दुर्गुणी होने से यह विश्वास का पात्र भी नहीं रहा। व्यसनी होने से यह अधिक संभव है जो यह हमारे द्वारा प्रदत्त धन का उपयोग अपनी आजीविकार्थ न करके मद्यपान में ही करे या फिर किसी वेश्या को दे दे।
आजीविका के अभाव में या तो वह लज्जाविहीन हो दर-दर भिक्षाटन करता है या फिर चोरी या द्यूत द्वारा अपना कष्ट दूर करने का प्रयत्न करता है। वेश्या व्यसनी यदि चोरी या द्यूत क्रीड़ा द्वारा धनोपार्जन कर भी ले तो वह उसे वेश्या को ही देगा या मद्यपान करेगा। वेश्याओं के पास ऐसे ही अनेक चोर, उचक्के, डाकू, शराबी और मांसभक्षी पुरुष आते जाते रहते हैं जो उसकी दुःसंगति को छोड़ने में अपने को असमर्थ पाते हैं। __वेश्या, कंचन और मद्य ये तीन यदि एक एक भी हो तो मनुष्य को सर्वथा अविवेकी, निर्दय, निर्लज्ज और पराधीन बना देते हैं। कदाचित् तीनों का योग हो जाय तब तो विनाश के लिए परम औषधि, जिसे महाविष भी कहा जा सकता है, तैयार हो गई ऐसा मान लेना चाहिए। जो मनुष्य अपना कल्याण चाहता है, सुख और शान्ति का अभिलाषी है उसे परिवार चाहिए, समाज चाहिए और सत्संगति चाहिए। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। वह अकेला नहीं रहना चाहता। वह साधु भी हो जाय तो भी उसे वही साधु समाज अपने सुख शान्ति के लिए चाहिए। फिर संसारी गृहस्थ की तो
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