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नैष्ठिकाचार
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बात ही क्या है? वह तो सबसे अलग अकेला रह ही नहीं सकता। पर यह वेश्याव्यसन ऐसा है जो यह उस प्राणी को संसार में इस जीवित अवस्था में ही सबसे विमुक्त कराकर अकेला कर देता है। मनुष्य परिवार मित्र व समाज से परित्यक्त हो बहुत त्रास पाता है
और अन्त में चलते-चलते ऐसे मनुष्यों के संपर्क में पहुँच जाता है जो ऐसे ही त्रस्त हो सबसे विमुक्त हैं और अनेक पापों द्वारा अपना जीवन यापन करते हैं। ऐसी संगति ही सर्वनाश की निशानी है। आत्मकल्याण की कामना करनेवाले मनुष्यों को इस विनाशक व्यसन से सदा बचना चाहिए, और जिन कार्यों से अपना हित हो उनमें सावधान रहना चाहिए। व्यसनी मनुष्य का आत्मा दुर्गुणों का पात बन जाता है अतः अपने आत्मा की पवित्रता की रक्षा के हेतु इस महाव्यसन का दूर से ही परित्याग करना चाहिए।८६।
प्रश्नः-स्तेयफलं गुरो किं स्यात् वदास्ति शान्तये मुदा। हे गुरुदेव! चोरी करने का क्या फल है कृपाकर शान्ति प्राप्ति के लिए मुझसे कहें
(अनुष्टुप्) स्ववित्तमपि मे नास्ति पुण्यलब्ध कथं परम् । ज्ञात्वेति तत्त्वतः स्तेयं न कुर्वन्त्यात्मवेदिनः ।।८७। स्वपरज्ञानशून्या हि स्तेयं कुर्वन्ति पापिनः । ततः स्वानन्दतृप्तः सन् वसतु स्वात्ममन्दिरे ।।८८।।
स्ववित्तमित्यादिः- यल्लोके स्ववित्तमित्युच्यते तदपि यथार्थतः पुण्याल्लब्धमस्ति, तथापि तत्परमेव। स्वात्मस्वभावबहिर्भूतं न किञ्चन अपि मम। संपत्तिः विपत्तिश्च पुण्यपापयोः फलम् । तत्तत्सामग्री कर्मसंयोगजा। कर्म एव आत्मनः शत्रुः। तेनैव भ्रमति जीवः। इत्यात्मतत्त्ववेदिनः पुरुषाः स्वीयार्जितमपि पुण्यलब्धं धनं परित्यज्य धर्मसेवामङ्गीकुर्वन्ति कथं तैः परधनापहरणरूपं स्तेयं स्यात् । स्वपरविवेकरहिताः खलु पुमांसः पापिनः स्तेयं कुर्वन्ति ततः स्तेयादिकं विहाय स्वात्मानन्दभोगेषु तृप्तः सन् स्वात्मरूपे परमविश्रामस्थले मन्दिरे वसतु।८७/८८।
लोक में जो धन माना जाता है वह भी पुण्य कर्मोदय से प्राप्त होता है। बिना पुण्य के सातोत्पादक सामग्री का संयोग प्राप्त नहीं होता। धन यदि लौकिक सुख को उत्पन्न करता है तो पुण्य का फल है। यदि वह धन असाता और आकुलता प्राप्त कराता है तो पाप का फल है। एकान्त नहीं है जो यह धन-संपत्ति राज्य, परिवार, पुत्र, कलत्र सब पुण्य के फल हैं। यदि इनसे संसारी प्राणी साता का अनुभव करे तो ही ये पुण्य सामग्री हैं, अन्यथा असाता की उत्पादक हों तो ये सब पापोदय की सामग्री हैं। और
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