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नैष्ठिकाचार
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को देनेवाले इस कुव्यसन का त्यागकर आत्मशोधकों को स्वात्मा में ही रमण करना चाहिए।८४।८५।
प्रश्नः-वेश्यासङ्गफलं किं मे वदास्ति सिद्धये गुरो। हे गुरुदेव! वेश्यासङ्ग का क्या फल है वह मेरे आत्महित की दृष्टि से कहिए
(वसन्ततिलका) वेश्यारतस्य शुचिता सुखदा न शान्तिः
बुद्धेर्बलं सुजनता नरताऽपि नश्येत् ज्ञात्वेति धर्मरसिकैर्न हि तत्प्रसङ्गः
कार्यो यतः खलु भवेत् विमलः किलात्मा ।।८६।। वेश्येत्यादि:- कामातुरो पुरुषः स्त्री च परस्त्रीं परपुरुषं च सेवते। या तु व्यभिचारिणी स्त्री अभर्तृका अपि पुरीषालयवत् नगरनिवासिभिर्विटपुरुषैः सेव्यते तथा यस्या जीवनमपि अनेनैव दुष्कर्मणा संपद्यते सा वेश्याशब्देन लोके प्रसिद्धाऽस्ति। वेश्यारतस्य शुचिता नश्यत्येव। सुखदायिनी शान्तिस्तु तत्र पदं न धत्ते। तद्व्यसनेन नरस्य बुद्धेर्बलमपि नश्यति। तस्य मानवताऽपि लुप्यते पशुता चायाति। इति ज्ञात्वा धर्मरसास्वादकैः कदापि तत्प्रसङ्गः न कार्यः। अतः तत्परित्यागेन आत्मा विमलः पापविरहितो भवेत्।८६।
___ व्यभिचारिणी स्त्रियाँ जो व्यभिचार द्वारा ही अपना उदर निर्वाह करती हैं, जो बिना पति की होते हुए नगर के अनेक विटपुरुषों द्वारा नगरपालिका के पुरीषालयों की भाँति सेवित होती हैं वे वेश्या शब्द के द्वारा व्यवहृत होती हैं। वेश्याव्यसनी मनुष्य बहुत दुःखी होता है। सबसे प्रथम तो वेश्या अपने ग्राहक से किञ्चिन्मात्र स्नेह न होते हुए भी अत्यन्त स्नेह का प्रदर्शन करती है जिससे वह व्यसनी जाल में मछली की तरह उसके जाल में फँस जाता है। वह उस जाल से अपने को फिर मुक्त नहीं कर पाता। वह अपना सर्वस्व धन, धर्म, वैभव, ज्ञान, विवेक, कीर्ति, दया, सद्व्यवहार और नागरिकता उस कुटिला के चरणों में चढ़ा देता है।
चारुदत्त की कथा तो शास्त्रों में प्रसिद्ध है, परन्तु वेश्याव्यसनी की बरबादी के अनेक लौकिक उदाहरण प्रत्यक्ष भी देखे जाते हैं। वेश्या अपने ग्राहक को मद्यपान के व्यसन में फँसाए बिना नहीं रहती। मद्यपान से उसे यह लाभ होता है कि मद्यप उसके नशे में अपना होशहवाश खो बैठता है। चित्तभ्रम होने से कभी अपने भले की बात सोच ही नहीं पाता। यदि वह मद्यपान न करे तो अधिक सम्भव है कि वह कभी अपनी बरबादी,
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