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श्रावकधर्मप्रदीप
है। कोई कर्ज पैसा नहीं देता है। कोई उधार सौदा नहीं देता है। इस प्रकार आजीविका नष्ट हो जाती है। उसका विश्वास जनता से एकदम उठ जाता है। कोई उसकी संगति नहीं करना चाहता। पास बैठाना नहीं चाहता। यदि पड़ोस में चोरी हो जाय तो उस पर एक बार सन्देह जरूर चला जाता है। जुए में हार जाना ही अधिक सम्भव होता है। जुआरी प्रायः अन्त में निर्धन ही हो जाते हैं।
निर्धनता का कारण स्पष्ट है। वह गणित शास्त्र से प्रमाणित हो जाता है। कल्पना कीजिए की ४ व्यक्ति पाँच सौ पाँच रुपया लेकर जुआ खेलने बैठे। इनमें एक व्यक्ति ने प्रथम बार २००)जीत लिया, वह प्रसन्न हुआ और तत्काल २५) मिठाई खाने सिगरेट पीने आदि आमोद-प्रमोद में खर्च करा दिए। देखनेवाले अनेक व्यक्ति वहाँ रहते हैं जो प्रत्येक जुआरी के सम्बन्धी या जान पहिचान के होते हैं। वे उस प्रसन्नता के फलस्वरूप उससे पारितोषिक माँगते हैं। वह मुफ्त के बिना परिश्रम पाए हुए रुपयों में से २५)-५०)रुपया बाँट भी देता है। दूसरी बार दूसरा व्यक्ति २००)३००)जीत जाता है। तो वह भी २५)४०) आमोद-प्रमोद में खर्च कर देता है और लगनेवाले लोगों में बाँट देता हैं। यह रुपया जो आमोद-प्रमोद में चला जाता है या लोग ले जाते हैं जुए की मूल पूँजी जो २०००) थी उसमें से घटता जाता है। १०-५ बार इसी प्रकार कभी कोई कभी कोई दाव लगाकर जीता और ५०) रुपया जुए के बाहर उक्त प्रकार से खर्च में चले गए। ४-६ घण्टे यदि जुआ चलता रहा तो २५-३० बार हारजीत का प्रसंग सहज ही आ जाता है और प्रतिवार ५०) खर्च के हिसाब से ३० बार में १५००) खतम हो जाता है। बाकी ५००) रह गया सो किसी के पास १००) होंगे, किसी के पास २००) होंगे, किसी के पास ३००) होंगे तो कोई एक सर्व धन से रहित हो गया होगा। यथार्थ दृष्टि से सब लोग हारे। ऐसा होने पर भी ईर्ष्यावश वे यह समझते रहते हैं कि हम इससे अच्छे हैं हमारे पास तो इतना बचा। यह तो निर्धन हो गया। इस प्रकार ईर्ष्याजन्य परिणामों से सन्तुष्ट होकर चले आते हैं।
इतना होने पर भी वे शान्त नहीं बैठ सकते। पुनः दुबारा घर से रुपया लेकर, घर में न हो तो जेवर गिरवी रखकर या बेचकर और यदि जेवर न हो तो जहाँ से उधार मिल सकता है वहाँ से उधार लेकर, घर-मकान गिरवी रखकर भी रुपया लाते हैं और एक के चार बनाने की अभिलाषा से पुनः जुआ खेलते हैं। परिणाम उसका भी पहिले जैसा ही होता है और अन्त में वे फिर अपनी पूँजी को कमकर बैठते हैं या निर्धन हो
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