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श्रावकधर्मप्रदीप
नवागत साधु यह सुनकर बहुत व्यथित हुआ, बोला कि भाई वेश्या संगति से तू शराब भी पीने लगा, मांस भी खाने लगा और शिकार भी करने लगा। तुझे चार-चार व्यसन लग गए। भला यह तो बता कि साधु होकर पहिले वेश्या के यहाँ गया ही क्यों? तो वह बोला भाई क्या कहूँ? जब काम ने सताया और जब वन में अकेली दुकेली कोई स्त्री न मिली तो वेश्या के यहाँ जाना पड़ा। धन तो मेरे पास बहुत था, चोरी से मिल जाता था। जब कोई महाजन जंगल के रास्ते जाता तो उसे लूट लेता था। धन की कमी न थी। इससे वेश्या के यहाँ चला गया। दूसरे साधु ने सोचा कि यह दुष्ट चार ही व्यसन का व्यसनी नहीं है। परस्त्री गमन भी करता है और चोरी भी करता है। उसने उस पर करुणा कर पूछा कि भाई तेरी यह दुर्दशा कैसे हुई। ये दोनों दुर्व्यसन भी तुझे कैसे लग गए? तब प्रथम साधु बोला भाई क्या कहें? सच्ची बात यह है कि सबसे प्रथम मैंने जुआ खेलना प्रारम्भ किया था। उसमें पहिले तो बहुत धन मिला और उस धन ने मुझे मदोन्मत्त किया। मैंने सोचा बिना स्त्री के धन का क्या करूँ। फलस्वरूप मैंने एक स्त्री रख ली। कुछ समय बाद मैं जुए में हार गया सो सब धन चला गया। निर्धन होते ही वह स्त्री भाग गई। मैं उन्मत्त हो धन के लिए डाका डालने लगा और उस डाके में जो धन मिलता तो धन रख लेता और कोई स्त्री मिल जाती तो स्त्री रख लेता। इस तरह जुए ने मुझे स्त्री रखने तथा डाका डालने को बाध्य किया। अन्यायोपार्जित उस धन ने मुझे वेश्या घर तक पहुँचाया और वहाँ जाने पर मेरी जो दुर्दशा हुई वह आपके सामने है। सभी व्यसन अब मेरे साथी हैं। मैं इनमें घुल मिल गया हूँ। साधुता की जगह असाधुता आ गई है। केवल तन पर गेरुआ कपड़ा शेष है। सो ये भी लोगों के फँसाने का एक जालमात्र है, यथार्थ में साधुता नहीं है, साधुतावेश मात्र हैं।
इस कथा से यह सहज ही समझ में आ जाता है कि यह जुआ व्यसन सब व्यसनों का राजा है। यह सचमुच विपत्तियों का मित्र है। इसके वशीभूत मनुष्य अपनी सम्पूर्ण साधुता को तिलाञ्जलि देकर प्रत्येक प्रकार के दुर्गुणों को प्राप्त कर लेता है। जिस तरह अपने द्वारा भुक्तभोजन यदि वमन के द्वारा मुख से गिर जाय तो उसे अत्यन्त घृणास्पद समझ कर लोग छोड़ देते हैं। उसमें सब प्रकार के मिष्टान्न, जो भी मैंने खाए थे मौजूद हैं ऐसा समझ कर कोई उसे पुनः नहीं ग्रहण करता। इसी प्रकार वमन की तरह जुए के द्रव्य को समझकर उसे घृणाकर जो द्यूत का त्याग करता है वह पवित्रात्मा सर्व व्यसनों से बच जाता है और उसमें सब प्रकार के सद्गुण उत्पन्न होते हैं। वह अपने शुद्ध चैतन्य
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