________________
११०
श्रावकधर्मप्रदीप
जिसके हृदय में पाप का निवास स्थान है भला वहाँ धर्म का पैर कैसे जम सकता है। व्यसनी पुरुष का संसार व्यसनमय है। पापवासना उसके हृदय में सदा जागृत रहती है। परस्त्री पर, चाहे वह सती हो या असती हो, स्त्री हो या माता हो या बहिन हो, परद्रव्य पर; चाहे वह किसी का हो भले ही वह देवद्रव्य हो, उसकी कुदृष्टि रहती है।
व्यसनी का खाना-पीना, उठना-बैठना, भले पुरुषों की सङ्गति व उनका उपदेश, देवस्थान व देवपूजा, शास्त्रश्रवण और धार्मिक उत्सव आदि कल्याणकारी एक भी कार्य में चित्त नहीं लगता। सोते-जागते, खाते-पीते, देवध्यान-देवपूजन करते और शास्त्रश्रवण करते हुए भी उसका चित्त सदा अपने व्यसन में रहता है। एकमात्र उसी का ध्यान रहता है, अतएव व्यसन स्वहितैषी के लिए सर्वथा छोड़ने योग्य हैं।
प्रथम द्यूतव्यसन का लक्षण
__ (अनुष्टुप्) द्यूतमेव जनानां स्याच्छत्रुः सर्वापहारकः । स्थानं दुष्कर्मणां नूनं मूढानां विपदां सखा ।।७८।। ज्ञात्वेति च्छर्दिवद्यूतं त्यक्त्वा चात्यन्तदुःखदम्।
सन्तो निर्व्यसनाः सन्तु शुद्धचिद्रूपनायकाः ।।७९।।
द्यूतमित्यादिः- भावस्त्वयम्, द्यूतमेव जनानां सर्वापहारकः शत्रुरस्ति। यथा शत्रुः सर्वाणि द्रव्याण्यपहरति तथा द्यूतं लौकिकदृष्ट्या सर्वधनापहारकं कीर्तेरपहारकं स्वास्थ्यनाशकं आजीविकाविघातकं अविश्वासोत्पादकं चास्ति। पारमार्थिकदृष्ट्या तु अनेकपापानां जनकं दयादाक्षिण्यादिसद्धर्माणामपहारकमस्ति। तद्वद् दुष्कर्मणामनेकव्यसनानां स्थानं तथा विपत्तीनां सखा। एतज्ज्ञात्वा वान्तिवत् दुखदं द्यूतं दूरत एव परिहर्तव्यम् । शुद्धचैतन्यरूपे स्वरूपे स्थित्वा व्यसनैर्यथा मुक्तिः स्यात् तथा वर्तितव्यम् ।७८७९।
___ जुआ मनुष्यों का सर्वापहरण करनेवाला शत्रु है। शत्रु तो केवल बाह्य द्रव्य सुवर्ण-चांदी और गृह आदि का अपहरण कर सकता है, परन्तु द्यूत द्रव्य का अपहरण तो करता ही है, साथ ही कीर्ति का भी अपहरण करता है, स्वास्थ्य का भी नाशक है, आजीविका को भी नष्ट कर देता है और अविश्वास को उत्पन्न कर देता है। ऐसा जानकर छर्दि के समान द्यूत का त्याग कर शुद्ध चिद्रूप का स्वामी सज्जन पुरुष द्यूत व्यसन से दूर रहे।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org