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नैष्ठिकाचार
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शङ्केत्यादि:- शंका कांक्षा विचिकित्सा कुदृष्टेः प्रशंसा तत्संस्तवश्च सदृष्टेः एते पञ्चातिचाराः सम्यक्त्वं दूषयन्ति मलिनीकुर्वन्ति।७७। इति श्रीकुन्थुसागराचार्यविरचिते श्रावकधर्मप्रदीपेपण्डितजगन्मोहनलाल सिद्धान्तशास्त्रिकृतायां
प्रभाख्यायां व्याख्यायां च द्वितीयोऽध्यायः समाप्तः। आस्तिक्य गुण के विरुद्ध आत्मा के अस्तित्व पर तथा परम वीतराग अर्हत्परमात्मा के वचनों पर सन्देह करना शंकातिचार है। इन्द्रियों के विषयों की अभिलाषा को ही जीवन में प्रमुख स्थान देना कांक्षा नाम दूसरा अतिचार है। धर्मात्मा श्रावक व साधु व्रती पुरुषों की तथा सर्व साधारण रोगी ग्लान पुरुषों की सेवा करने में घृणा करना विचिकित्सा नामा तृतीय अतिचार है। जो मिथ्यादृष्टि हैं, सद्धर्म से द्वेष रखते हैं, पाप से प्रीति रखते हैं, विषयान्ध हैं और कपटभेषी हैं अर्थात् धर्मात्मा का भेष रखकर दूसरों को ठगते हैं। इन सब कुलिंगियों और कुभेषियों की प्रशंसा करना यह प्रशंसा नामक चौथा अतिचार है तथा इन्हीं की स्तुति वन्दना करना संस्तत्व नाम का पांचवाँ अतिचार है।
विशेषार्थ- वस्तुतत्त्व का वेत्ता सम्यग्दृष्टि जीव सदा अपनी दृष्टि के सामने जगत् का सच्चा चित्र रखता है। वह उस जगद्रहस्य को जो ध्रुवसत्य है, जिसपर उसे दृढ़तम श्रद्धा है, कभी विस्मृत नहीं करता। सोते-जागते, खाते-पीते व व्यापार-व्यवसाय करते हुए, यहाँ तक कि विषयों का भोग भोगते हुए भी वह अपनी स्थिति को और जगत् की स्थिति को एक क्षण के लिए भी नहीं भूलता। उसके हृदय में ये विचार सदा जागृत रहते हैं कि मैं सदा शाश्वत, विज्ञानस्वरूप, परम पवित्र और अनन्त गुणों का अखण्ड पिण्ड आत्मा हूँ, मैं सदा अविनाशी हूँ, मेरे गुण रूपी धन का विनाश कभी नहीं हो सकता। मेरे गुण मेरे अपराध से मलिन हो रहे हैं, अतएव मुझे उन्हें निर्मल बनाना है। अर्थात् मुझे विभाव छोड़कर स्वभाव परिणति उत्पन्न करनी है।
पंचेन्द्रियों के विषयों में संलग्नता मेरा भोग नहीं है। मेरा भोग आत्मिक गुणों का भोग है जो अविनाशी है। ये इन्द्रियजनित भोग विनाशी हैं। इनका बोध इन्द्रियद्वार से होता है और इन्द्रियाँ शरीर का अंग हैं। शरीर आत्मस्वभाव से भिन्न जड़ पदार्थ है। जड़ की संगति से आत्मा का कल्याण नहीं हो सकता। शरीर मल-मूत्र की योनि है। यह और इसकी उत्पत्ति का कारण दोनों अपवित्र हैं। अतः उससे प्रीति करना भी आत्मघातक है और उससे घृणा करना भी वस्तुस्वभाव से आंख मीच लेना है। जिस वस्तु का जो स्वभाव है उसे ठीक रूप में समझ लेना ही आत्महित साधक है।
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