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नैष्ठिकाचार
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जाती तब तक मोक्ष भी दूर है। मुझे मोक्ष की प्राप्ति हो वह मुझे कब मिले ऐसी चिन्ता करने वाला अपना समय व्यर्थ ही चिन्ता में खोता है। चिन्ता करने से कोई वस्तु नहीं मिलती, उसके लिए किए जानेवाले प्रयत्न में संलग्न होने से ही उक्त उद्देश्य की पूर्ति होती है। कर्तव्यविमूढ़ केवल चिन्ता में संलग्न तपस्वी अनेक वर्षों की तपस्या करने पर भी मुक्ति को प्राप्त नहीं होता है। जब मोक्षाभिलाषा ही मोक्ष प्राप्ति में बाधक है तब अन्य पदार्थों की अभिलाषाएँ कितनी अधिक बाधक होंगी यह सहज ही समझ में आ जाता है।
सारांश यह कि मोक्षाभिलाषी को अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए बनाए गए प्रयत्नों में ही संलग्न रहना चाहिए। कर्तव्यशील व्यक्ति ही स्वोद्देश्य की पूर्ति कर सकता है। कर्तव्य रहित चिन्तामात्र करनेवाला चिन्ताशील व्यक्ति केवल चिन्ता का पात्र होता है और अल्प प्रयत्नों को बड़ा प्रयत्न माननेवाला अथवा महान् प्रयत्न को भी अपने गर्व की वस्तु माननेवाला व्यक्ति पथ से च्युत हो जाता है और वह कभी अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं होता। अतः तपस्या का भी मद करना हेय है।५१।
उपसंहार
(अनुष्टुप्) मिथः क्लेशकरं प्रोक्तं हीत्यष्टमदलक्षणम् ।
ज्ञात्वेति तान् मदांस्त्यक्त्वा भवेयुनिर्मदाः सदा ।।५२।। मिथ इत्यादि:- इति एवंप्रकारेण मिथः क्लेशकरं अष्टमदलक्षणं प्रोक्तम् । अष्टावाश्रित्य गर्वकरणं अष्टानां इति स्वरूपं ज्ञात्वा मदान् त्यक्त्वा सदा निर्मदा भवेयुः। ५२।
ऊपर कहे हुए परस्पर क्लेशकर आठों मदों का स्वरूप भली भाँति समझ कर धर्मात्मा पुरुषों का कर्तव्य है कि वे इनसे अपने को सदा दूर रखें और किसी भी प्रकार का मद न करें। अभिमानी स्वल्पोन्नति में संतोषी हो जाता और अपने अल्प गुणों को भी महान् गुण मान बैठता है। उसके इस भ्रम से उसकी उन्नति रुक जाती है। वह अपनी उन्नति का स्वयं बाधक बन जाता है। सम्यग्दर्शन मोक्ष का मूल है। किन्तु इन मदों से उसकी जड़ पर ही कुठाराघात होता है और सम्यक्त्व सदोष हो जाता है। धर्मात्मा पुरुषों को इन मदों से दूर रहकर अपना सम्यक्त्व निर्मल बनाना चाहिए।५२।
इस प्रकार आठ मदों के स्वरूप का विचार किया।
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