________________
नैष्ठिकाचार
१०१
है। ऐसी स्थिति में सभी पदार्थों का अस्तित्व समाप्त होता है। यही नास्तिकत्व है। ऐसी मान्यता वाले नास्तिक हैं। न कि वेदनिन्दक नास्तिक हैं। किसी की निन्दा या प्रशंसा से कोई आस्तिक या नास्तिक नहीं हो सकता बल्कि उस मूलभूत स्वात्मा के तथा उसके स्वरूप की प्राप्ति के सदुपायों को स्वीकार न करना ही नास्तिकत्व की ठीक व्याख्या है।
सम्यग्दृष्टि पुरुष अपने स्वात्मा का अस्तित्व तो मानता ही है, साथ ही उसका द्रव्यदृष्टि से नित्य शाश्वत स्वरूप भी उसकी दृष्टि से ओझल नहीं है। उसका यह विश्वास है कि आत्मा अमर है, निर्विकार है, शुद्ध है, बुद्ध है, निरञ्जन है, ज्ञान-दर्शन चैतन्य स्वरूप है। वह देह में स्थित है, देह ही आत्मा नहीं है। उसे स्वात्मापराधजनित कर्म लगे हुए हैं, जिनसे उसकी अवस्था शुद्ध रूप में नहीं है, किन्तु वह कर्मजनित विकारों को दूरकर शुद्ध हो सकता है। वह केवल अपने अपराध से स्वयं बद्ध है। कोई दूसरा व्यक्ति उसे बाँधने या छोड़नेवाला नहीं है। जिन आत्माओं ने अपने विकारों पर विजय पा ली है वे देहधारण की परम्परा के कष्ट से छूट जाते हैं और वे ही आत्मा परमात्मा' कहलाते हैं। वह मानता है कि एक शाश्वत सुख-दुःख का दाता अपना शासन दण्ड चलानेवाला कोई ‘परमात्मा' नहीं है, जो मुझे पराधीन कर सके। अपने बनाने और बिगाड़ने में मैं स्वतन्त्र हूँ। मैंने अब तक अपने को अपनी भूल से बिगाड़ा है, परमात्मा ने मुझे नहीं बिगाड़ा। मैं अपनी भूल का प्रायश्चित्त कर निरपराध हो स्वयं परमात्मा बन सकता हूँ। मुझे कोई दूसरा-ईश्वर परमात्मा बनानेवाला नहीं है।
इस प्रकार सद्वृष्टि पुरुष को अपने आत्मा के अस्तित्व का पूर्ण बोध है। उसकी बद्धावस्था का, बद्धावस्था के कारणों का और बद्धावस्था में कारण होनेवाली अपनी स्वरूप हानि का पूर्ण ज्ञान है। आत्मा विचार करता है कि वह किससे बँधा है। उसे बाँधनेवाले कर्म क्या है? वे कैसे आगए? कैसे बँध गए? उन्हें कैसे रोका जा सकता है? पूर्वबद्ध कर्म कैसे मुझसे दूर हो सकते हैं? वह अवस्था कब होगी जब मैं सर्व कर्मों पर व तन्निमित्तजन्य काम-क्रोधादि विकारों पर विजय पाकर नित्य शाश्वत अपने चिदानन्दमय स्वरूप को प्राप्त होऊँगा। वस्तुतः मेरे विकार ही मेरा संसार है, जिसका नाश करना है, यही मोक्ष है।
इन प्रश्नों के उत्तर स्वरूप क्रमशः उसे जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन तत्त्वों का सम्पूर्ण बोध है और उन सबका बोध जिनसे प्राप्त हुआ है उन परमवीतरागी परमात्मपने को प्राप्त अर्हत्परमेष्ठी में, उनके प्रतिपादित उपदेश स्वरूप
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org