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श्रावकधर्मप्रदीप
व्याकरणशास्त्र से यदि आस्तिक शब्दा का विचार किया जाय तो यह अर्थ होता है कि 'अस्ति' ऐसी जिसकी मति है वह आस्तिक है। यहाँ यह प्रश्न उपस्थित होता है कि किस पदार्थ के अस्तित्व को स्वीकार करनेवाला आस्तिक माना जाय? इसका न्यायसंगत उत्तर है कि सर्व प्रथम जिसे अपना स्वयं का अस्तित्व स्वीकार हो वह आस्तिक है। अनेक मत ऐसे हैं जो स्वात्मा का ही अस्तित्व स्वीकार नहीं करते। जहाँ आत्मा का ही अस्तित्व स्वीकार नहीं है वहाँ बन्ध और मोक्ष, पुण्य और पाप, लोक और परलोक, सदाचार और असदाचार, हिंसा और अहिंसा तथा कर्तव्य और अकर्तव्य के अस्तित्व का प्रश्न नहीं उठता। “मूलं नास्ति कुतः शाखा” अर्थात् जिस वृक्ष में जड़ का ही अभाव है उसकी शाखा, प्रतिशाखा, पत्र, पुष्प और फल की आशा करना मूर्खता की बात है। इसी प्रकार स्वात्मसत्ता के अभाव में उसके सम्बन्ध की सारी चिन्ताएँ व्यर्थ हैं।
जितने मत-मतान्तर, सिद्धान्त व सम्प्रदाय संसार में प्रचलित हैं वे सब शान्तिलाभ, सुखप्राप्ति व मुक्तिप्राप्ति के लिए या वस्तुतत्त्व-जगद्रहस्य के प्रतिपादन के लिए हैं। उनका उद्देश्य उक्त उद्देश्यों में से एक न एक अवश्य है। ऐसी स्थिति में यह प्रश्न सहज ही होता है कि शान्ति, सुख व मुक्ति कौन प्राप्त करेगा? वस्तु का तत्त्व और जगत् का रहस्य कौन समझेगा? इन सब सैद्धान्तिक रचनाओं का करनेवाला कौन है
और किसके लिए ये सब रचनाएँ हुई हैं? तो इन सब प्रश्नों का एक ही उत्तर आयेगा कि आत्मा के लिए अर्थात् जीव के लिए। ___इस प्रकार आत्मा के अस्तित्व के स्वीकार कर लेने के साथ ही यह प्रश्न तत्काल उपस्थित हो जाता है कि वह कहाँ से आता है, कैसे पैदा होता है, कहाँ जाता है, क्या देह ही स्वात्मा है या देह से पृथक् कोई स्वात्मा है, आत्मा कैसा है; वह किस लक्षण, चिह्न, गुण या स्वभाववाला है। उसकी लम्बाई; चौड़ाई आकार-प्रकार और रूप-रंग क्या है? इत्यादि अनेक प्रश्न उठते है। इन सब प्रश्नों के सम्बन्ध में विचार करने पर यह सहज ही समझ में आ जाता है कि देह से पृथक् कोई आत्मतत्त्व है जो स्थायी है तथा जिसके लिए कल्याण का उपदेश सभी सिद्धान्तकार देते हैं। यदि वह शरीरमात्र होता तो अग्नि में भस्म हो जाता। फिर पुण्य-पाप आदि कर्तव्यों का उपदेश व्यर्थ हो जाता। जो लोग देहमात्र ही आत्मा मानते हैं वे लोक-परलोक, पुण्य-पाप और आत्मा-परमात्मा यह सब कुछ नहीं मानते। उनके मत में सदाचार और अनाचार की कोई व्याख्या नहीं बन सकती।मूलभूत आत्मा के अभाव में उसके लिए कुछ भी प्रतिपादन करना असम्भव
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